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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
___ उक्त ताम्रपत्रमें लिखा है-गुप्त संवत् १५९ में एक ब्राह्मणनाथ शर्मा और उसकी भार्या राम्नीने वटगोहाली ग्राममें पंचस्तूपान्वय निकायके निर्ग्रन्थ आचार्य गुहनन्दिके शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा अधिष्ठित विहार में भगवान् अर्हन्तों की पूजा-सामग्रीके निर्वाहाथं तथा निर्ग्रन्थाचार्य गुहनन्दिके विहारमें एक विश्राम स्थानके निर्माणार्थ यह भूमि सदाके लिए इस विहारके अधिष्ठाता बनारसके पंचस्तूप निकाय संघके आचार्य गुहनन्दिके शिष्य-प्रशिष्योंको दानमें दी।
__ आचार्य गुहनन्दि पंचस्तूपान्वयके प्रमुख आचार्य थे। इस पंचस्तूपान्वय की स्थापना आचार्य अहंबलीने की थी। ये पुण्ड्रवर्धनके निवासी थे। इसी पंचस्तूपान्वयमें आगे चलकर षट्खण्डागमके सुप्रसिद्ध टीकाकार आचार्य वीरसेन और आचार्य जिनसेन भी हुए।
वटगोहाली सम्भवतः वट गुफावलीका अपभ्रंश रूप है। इस नामसे ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ वटवृक्ष और गुफाएँ बहुत थीं। यह गाँव पौण्ड्रवर्धन नगरसे उत्तर-पश्चिमकी ओर २९ मील तथा वानगढ़ (प्राचीन कोटिवर्ष ) से दक्षिण-पूर्वकी ओर ३० मील था। इन दोनोंके मध्यमें वटगोहाली गाँव आबाद था। पौण्ड्रवर्धन और कोटिवर्ष दोनों ही प्राचीन कालमें जैनधर्मके केन्द्र थे। इसलिए इस विहारका बहुत महत्त्व था। पौण्ड्रवर्धन राजनैतिक दृष्टिसे भी बड़ा महत्त्वपूर्ण था। मौर्य और गुप्तकालमें इस नगरमें प्रान्तीय उपरिक ( गवर्नर) रहता था। श्रुतकेवली भद्रबाहु और आचार्य अहंबली दोनों ही आचार्य इसी नगरके निवासी थे।
वटगोहाली बिहारकी ख्याति विद्या-केन्द्रके रूपमें भी थी। यहाँ अनेक दिगम्बर मुनि रहकर ध्यान-अध्ययन किया करते थे। उनके कारण अनेक यात्री दर्शनोंके लिए और उनका आया करते थे। अनेक छात्र विद्याध्ययनके लिए आते थे। ऐसा लगता है, ईसाकी प्रारम्भिक शताब्दियोंमें पूर्वमें वटगोहाली बिहार, उत्तरमें मथुराका बिहार, पश्चिममें सौराष्ट्र स्थित गिरिनगरकी चन्द्रगुफा और दक्षिणमें श्रवणबेलगोल ये चारों दिशाओंमें जैन-तत्त्वविद्याके सुदृढ़ केन्द्र थे।
__इस विहारकी ख्याति जैन विद्यापीठके रूपमें गुप्तकाल तक रही। गुप्त शासनके तिरोहित होनेपर बंगालमें शशांक नामक हिन्दू राजाका उदय हुआ और प्रबल वेगसे उसने अपने राज्यका विस्तार किया। वह एक धर्मान्ध शासक था। उसने वटगोहाली जैनविहारको बुरी तरहसे क्षति पहुँचायी। सम्भवतः इसके फलस्वरूप इस विहारपर कुछ समय तक ब्राह्मणोंका अधिकार रहा। शशांककी मृत्युके बाद बंगालमें एक शताब्दी तक अराजकताका दौर-दौरा रहा। तब वंगवासियोंने स्वेच्छासे गोपाल नामक सरदारको सन् ७५० में वंगदेशका राजा निर्वाचित कर लिया। इसोसे पालवंश चला। इसका पुत्र धर्मपाल ई. सं. ७७० में गद्दीपर बैठा। पालवंशीनरेश कट्टर बौद्ध धर्मानुयायी थे। धर्मपालने जैन विहारपर अधिकार कर लिया। उसने बटगोहाली के निकट सोमपुर नामक स्थानमें बौद्ध विहारकी नींव डाली और जैनविहारको उसमें सम्मिलित करके एक विशाल बौद्ध विहार बना दिया। इसपर बौद्धोंका अधिकार मुस्लिम शासकोंके काल तक रहा। जब उन्होंने इसे नष्ट कर दिया, तबसे वह भग्न दशामें पड़ा हुआ है।
वटगोहाली अर्थात् आधुनिक पहाड़पुरसे प्राप्त यह ताम्रपत्र ऐतिहासिक दृष्टिसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और इससे उस जैन विहारके सम्बन्धमें प्रकाश पड़ता है, जिसकी ख्याति लगभग सात सौ वर्षों तक विभिन्न रूपोंमें रही।