Book Title: Bhakti kavya ka Samaj Darshan Author(s): Premshankar Publisher: Premshankar View full book textPage 5
________________ राह खोजना सार्थक रचना के लिए बड़ी चुनौती है। आधुनिक समय में भी स्थिति यही है, बल्कि जटिलतर, जिसका संकेत निराला, मुक्तिबोध जैसे कवियों ने किया है। भक्तिकाव्य एक ओर लोक को संबोधित करता है, दूसरी ओर बुद्धिजीवी के लिए चुनौती बनकर उपस्थित है, जो कई प्रकार की हैं। नैमिष क्षेत्र में जन्म, काशी में शिक्षा, लखनऊ-सागर में अध्यापन-इस प्रकार जीवन-वृत्त बना है। भक्तिकाव्य कहीं मेरे अवचेतन में वास करता रहा है, जिसके आरंभिक संस्कार मुझे कर्मठ-ईमानदार माता-पिता से मिले। आदि आचार्य ठाकुर जयदेवसिंह के भक्ति-संगीत ने भी मुझे संस्कारित किया और काशी विश्वविद्यालय में आचार्य पं. केशवप्रसाद मिश्र जैसे गुरु मिले। गुरुवर आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने मुझे प्रसाद पर शोधकार्य करने का आदेश दिया और आधुनिक काव्य के साथ, समकालीन सर्जन भी मेरे अध्ययन का विषय बना। पूज्य डॉ. रामप्रसाद त्रिपाठी और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा : आधुनिक बहुत हो चुका, अब थोड़ा भक्तिकाव्य की ओर भी देखो। मेरे संस्कारों को जैसे किसी ने जगा दिया हो और मैं भक्तिकाव्य की ओर मुड़ा। पर मेरी अपनी कठिनाइयाँ थीं, जिनमें एक यह कि आधुनिक साहित्य का विद्यार्थी इससे समीपी साक्षात्कार करते हुए, उससे मुठभेड़ कैसे करे, जो कार्य स्वयं भक्तकवियों ने मध्यकाल में किया था। तुलसी की याद आई : मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी, चहिअ अमिय जग जुरइ न छाछी। कर्म और ईमान मुझे विरासत में मिले हैं, वही जीवनसंघर्ष में मेरे साथी रहे हैं और इन्हीं पर मुझे भरोसा था। एक शोधयोजना के अंतर्गत भक्तिकाव्य के सांस्कृतिक अध्ययन का कार्य आरंभ हुआ। इसे मैंने नया रूप दिया जो कई पुस्तकों में सामने आया। भक्तिचिंतन की भूमिका (वैदिक युग से लेकर भागवत तक), भक्तिकाव्य की भूमिका (ऐतिहासिक-सांस्कृतिक पीठिका), कृष्णकाव्य और सूर, रामकाव्य और तुलसी। फिर समापन अंश आया : 'भक्तिकाव्य की सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना' और बाद में 'भक्तिकाव्य का समाजशास्त्र' पुस्तक आई। इन्हें पाठकों का भरपूर स्नेह मिला, कृतज्ञ हूँ। भक्तिकाव्य पर काम करने के बाद मैं फिर अपनी पुरानी ज़मीन पर लौटा और 'नई कविता की भूमिका' पुस्तक लिखी जो नए काव्य-विवेचन का आरंभिक अंश है। रचनाआलोचना के अंतस्संबंधों पर विचार करते हुए 'सृजन और समीक्षा' पुस्तक आई। पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से समकालीनता से संवाद करता रहा। पर न जाने क्यों भक्तिकाव्य मुझे आंदोलित-उद्वेलित करता रहा और मैंने इसे 'भक्तिकाव्य का समाजशास्त्र' के माध्यम से व्यक्त किया। मेरे भीतर यह प्रश्न भी कि क्या रचना केवल दस्तावेज़ है ? और मैंने विनम्र पाठक के रूप में पाया कि महान रचनाएँ अपने समय से गहरे स्तर पर टकराती हैं, इस अर्थ में कि उनमें विकल्प का संकेत भी होता है। समय के यथार्थ में वे ऊपर-ऊपर तैरकर नहीं रह जाती, अंतःस्तल में प्रवेश 10 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शनPage Navigation
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