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सोलह स्वप्न देखे। प्रात: पति देव के मुख से 'तुम्हारे गर्भ में तीर्थंकर पुत्र अवतरित होंगे' ऐसा सुनकर महान हर्ष का अनुभव किया।
जब इस अवसर्पिणी काल के तृतीय काल में चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष और साढ़े आठ माह शेष रह गये थे तब आषाढ़ कृष्णा द्वितीया के दिन भगवान का (अहमिन्द्र के जीव का) गर्भागम हुआ है। उसी दिन इन्द्रों ने अपने दिव्य ज्ञान से भगवान का गर्भावतार जानकर असंख्य देवों के साथ आकर महाराजा नाभिराय और महारानी मरूदेवी का अभिषेक करके वस्त्रालंकार आदि से उनका सम्मान करके प्रभु का जन्मकल्याणक मनाया। उधर इन्द्र की आज्ञा से श्री, ही, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी आदि देवियाँ माता की सेवा करने लगीं। जन्म कल्याणक -
पन्द्रह माह तक कुबेर द्वारा रत्नवृष्टि की जा रही थी तभी चैत्र कृष्णा नवमी को सूर्योदय के समय माता मरूदेवी ने पुत्ररत्न को जन्म दिया। उसी क्षण स्वर्ग में इन्द्रों के आसन कम्पायमान होने से इन्द्रों ने शची इन्द्राणी व असंख्य देवगणों के साथ आकर जन्मजात बालक को ऐरावत हाथी पर ले जाकर सुमेरू - पर्वत की पांडुकशिला पर विराजमान किया एव 1008 कलशो से क्षीरसागर के जल से जन्मजात भगवान का अभिषेक किया। पुनः जिनबालक को वस्त्राभरण से सुसज्जित कर 'ऋषभदेव' इस नाम से अलंकृत कर बालक को अयोध्या में लाये और माता-पिता को सौंपकर वहाँ आनन्द नाम का नृत्य करके सभी को हर्षित कर दिया। ऋषभदेव का गार्हस्थ जीवन - .. देव बालकों के साथ क्रीड़ा करते हुए भगवान. शैशव अवस्था को पारकर युवावस्था में आ गये। पिता नाभिराज के निवेदन से जब श्री ऋषभदेव ने विवाह करना स्वीकार कर लिया तब इन्द्र की अनुमति से पिता ने कच्छ - महाकच्छ की बहनों यशस्वती और सुनन्दा के साथ महामहोत्सवपूर्वक श्री ऋषभदेव का विवाह कर दिया। यशस्वती ने भरत आदि सौ पुत्र एवं ब्राह्मी पुत्री को तथा सुनन्दा ने बाहुबली पुत्र एवं सुन्दरी कन्या को जन्म दिया। वैदिक ग्रन्थों में भी महाराज नाभिराज एवं मरूदेवी के पुत्र भगवान ऋषभदेव को एवं उनके भरतादि सौ पुत्रों को स्वीकारा है तथाहि - 'नमो भगवते ऋषभाय तस्मै'। . इसी प्रकार कुलकरों के नाम भी कुछ अन्तर से मनुस्मृति में आये हैं - 'कुल के आदि बीज प्रथम विमलवाहन, दूसरे चक्षुष्मान, तीसरे यशस्वी, चौथे अभिचन्द्र, पाँचवें प्रसेनजित, छठे मरूदेव और सातवें नाभिराज, भरतक्षेत्र में ये कुलकर हुए हैं। पुन: सातवें कलकर नाभिराज से मरूदेवी के गर्भ से आठवें अवतार 'ऋषभदेव' हए हैं। भागवत में भी ऋषभदेव को विष्णु का आठवाँ अवतार माना है।
वायुपुराण में कहा है - 'नाभिराज की पत्नी मरूदेवी ने ऋषभ पुत्र को जन्म दिया। ऋषभदेव ने सौ पुत्रों को जन्म दिया, उसमें भरत पुत्र बड़े थे।'
जैन महापुराण में लिखा है - 'किसी समय भगवान ऋषभदेव राजसिंहासन पर आरूढ़ थे, ब्राह्मी - सुन्दरी दोनों आईं। पिता ने बड़े प्यार से दोनों पुत्रियों को दायीं - बांयी ओर बिठाकर अ, आ ............ आदि अक्षरलिपि और 1, 2 ........ आदि अंकविद्या को पढ़ाकर युग की आदि में विद्याओं को जन्म दिया। पुनः भरत आदि सभी सौ पुत्रों को सम्पूर्ण विद्याओं और कलाओं में निष्णात कर दिया। प्रभु ने पुत्रों के यज्ञोपवीत आदि संस्कार भी किये थे। अर्हत् वचन, जनवरी 2000