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प्रचलित शौरसेनी (मूल) प्राकृत का प्रतीत होता है भले ही उसे संहिताओं द्वारा बाद में लिपिबद्ध किया गया। उसमें दो विशेषताएँ देखने में अवश्य आती हैं। पहली सिर को पार करती हुई खड़ी मात्राएँ और दूसरी हैं नीचे की आड़ी रेखाएँ। इसके अलावा शौरसेनी का भरपूर शाब्दिक उपयोग भी देखा जा सकता है। यह भाषा आज भी सहज ही दक्षिण भारत में समझी जा सकती है। भारतीय संगीत जगत की भी यही भाषा है।
___ऋग्वेद की भाषा संस्कृत मिश्रित प्राकृत है। प्रसिद्ध लेखिका अमृता प्रीतम के मतानुसार ऋग्वेद की रचना एक ही बार में ना होकर धीरे-धीरे लम्बे अन्तराल में अनेकों (27) संहिताओं के संकलन के रूप में हुई है। अंतराल होने पर भी भाषा की शैली में अधिक अंतर ना आ पाने से वह समान रूप से समझी जाती रही है। विश्व के सामने इससे पुरातन लिखित शास्त्र अन्य कहीं उपलब्ध नहीं है। यह ग्रंथ इस हेतु बहुत सी बातों की
ओर सूक्ष्मता से संकेत देता है। उचित होगा कि सर्वप्रथम हम यही देखें कि यह धर्म ग्रन्थ अपने अन्दर क्या संजोये है? हमारे देखने में ऋग्वेद की दो कृतियाँ आई हैं - (1) दयानंद सरस्वती संस्थान, दिल्ली द्वारा प्रकाशित तथा (2) पं. रामगोविन्द त्रिवेदी द्वारा सम्पादित विद्या भवन, चौखम्बा, वाराणसी द्वारा प्रकाशित। इनमें हमनें पहली को ही अपना आधार बनाया है।
इसके 10 मंडलों में सूक्ति और ऋचाएँ हैं जिनमें प्रकृति के मूल अवयवों अग्नि, पवन, जल, सूर्य, इन्द्र, अन्न, वनस्पति तथा पृथ्वी को देवस्वरूप मानते हुए उनकी पूजा अर्चना की है। वनस्पति की औषधमय महत्ता पहचानते हुए इन नैसर्गिक प्रतीकों को 'देव' मानकर उन्हें प्रसन्न रखने का उपक्रम यज्ञों द्वारा आदेशित किया दिखता है। ईश्वर की कल्पना इन्हीं अवयवों के आधार पर की गई है जिसमें कृषि हेतु वृषभ और गौ की सर्वाधिक प्रधानता दर्शयी गई है। - इनकी उपयोगिता दर्शाने वाला जिसे 'मनु' कहा गया है वह आखिर कौन है ? उसका मनस्मति वाले मन से क्या सम्बन्ध है जिसने स्त्रियों तथा शद्रों के संबंध में अपने आदेश निषेधात्मक दिये हैं? शोध का यह गंभीर विषय बनता है। क्योंकि यह ऋग्वेद में स्पष्ट नहीं किया गया है। जैनागम वर्णित 14 मनुओं में नाभिराय को अंतिम मनु अथवा कलकर माना गया है जिनके बेटे ऋषभकुमार थे। ज्ञान दाता वह राजा, वह नेता, वह मार्गदर्शक कौन है. यह भी ऋग्वेद में स्पष्ट अंकित नहीं किया गया है। पुन: क्योंकि जैनागम दस हंडावसर्पिणी के कर्म यग के दिग्दर्शक आदिनाथ को ही सर्वश्रेय देते हैं जिन्होंने समाज को षट्विद्याएँ और 72 कलाएँ दी।' कृषि, असि, मसि, विद्या, शिल्प, वाणिज्य तो दी ही, अपनी बेटियों को गणित (अंक विद्या), लिपियाँ तथा बेटों को ज्योतिष, न्याय, शास्त्र आदि की शिक्षा भी दी है। यह स्वाभाविक हो जाता है कि वही 'मनु' ऋषभ के पिता के रूप में कदाचित यहाँ भी प्रतिष्ठित हए हैं और उन्हें नाभि नाम से स्वीकारा भी गया है। उनके पिता अजनाभ के ही नाम से भारत को अजनाभ वर्ष पुकारा जाता था जिसकी सीमायें तब बहुत व्यापक थीं। उस प्रारम्भिक दण्ड व्यवस्था में जिसमें हा....! मा....! धिक....!' की व्यवस्था थी, उन्होंने सम्मति दी थी, उसे ऋग्वेद में भी प्रस्तुत किया गया है। 10 सांकेतिक प्रस्तुति भी अपने आप में पाठक को सत्य दर्शन की झलक से अवगत करा देती है
अयमस्मान्वनस्पतिर्मा च हा मा चरीरिपत।
स्वस्त्या गृहेभ्य आवसा आ विमोर्चनात्।।20।। 22॥ ऋग्वेद ग्रन्थ में 'पदार्थ' स्तुति के रूप में 'रूपांतरण' तथा वहीं पर भावार्थ के
अर्हत् वचन, जनवरी 2000