Book Title: Arhat Vachan 2000 01
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 93
________________ भगवान ऋषभदेव अन्तर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव के उद्घाटन समारोह (4 फरवरी 2000) में दिया गया भारत के प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी बाजपेयीजी का राष्ट्र के नाम संदेश पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी, पू. आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी, पूज्य क्षुल्लक श्री मोतीसागरजी महाराज, केन्द्रीय मंत्रिमंडल में मेरे सहयोगी श्री धनंजयकुमारजी, साहू रमेशजी 'जैन. ब्रह्मचारी रवीन्द्रकुमारजी जैन एवं भगवान ऋषभदेव निर्वाण महोत्सव समिति के सभी सम्माननीय सदस्यगण, देवियों और सज्जनों। लगभग एक वर्ष होने के साथ मुझे आप सभी के दर्शन करने का पुन: सौभाग्य मिला है। मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि जो समवसरण धर्मरथ चालू किया गया था, चलाया गया था, निरन्तर चल रहा है। धर्म का चक्र चलना भी चाहिये। निरन्तर चलना, जड़ होकर बैठना नहीं, हाथ रखकर समय नहीं बिताना, निरन्तर चलते रहना, यह धर्म की पहचान है। चलना जीवन है। मैं देखता हूँ साध्वियों को जिन्होंने पांव-पांव चलने का संकल्प लिया है। मौसम बाधक नहीं बनता, क्योंकि मंत्र है चरैवेति - चरैवेति। धर्म के रास्ते पर चलना चाहिये। धर्म वह तत्त्व है जो धारण करता है, शक्ति देता है, जो सदबुद्धि देता है, जो औरों का भला करना सिखाता है। हमारे देश में धर्म की प्राचीन परम्परा रही है। हमारे देश में दृष्टि अलग-अलग है, मान्यतायें अलग-अलग हैं, लेकिन सृष्टि एक ही है। यह धर्मपरायण देश है, यहाँ मजहबी भेदभाव नहीं है। उपासना पद्धति को लेकर शास्त्रार्थ तो होते रहते हैं लेकिन इस देश की विशेषता रही है कि दूसरे के सत्य को भी स्वीकार करने की तत्परता रही है। यह प्रसन्नता की बात है कि भगवान ऋषभदेवजी का निर्वाण महोत्सव मनाया जा रहा है। चौबीस तीर्थकर हुए थे, सभी ही आदरणीय हैं, पूजनीय हैं। लेकिन सबके बारे में जितनी जानकारी चाहिये, उतनी नहीं है। अभी. पू. माताजी कह रही थीं कि कई लोग तो यह समझते हैं कि जैन धर्म की स्थापना भगवान महावीर ने की, जबकि सच्चाई यह है कि वे चौबीसवें तीर्थंकर थे, उनसे पहले 23 तीर्थंकर और हुए हैं। मेरे सरकारी दफ्तर के कमरे में तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति रखी हुई है। बहुत से लोग आते हैं, पहचान नहीं पाते हैं, उनको बताने का काम श्री धनंजय ही करते हैं। लेकिन जानकारी होनी चाहिये। जैसे - जैसे हम महापुरुषों के बारे में, देवताओं के बारे में जानते हैं, जानने की कोशिश करते हैं, ज्ञान के नये आयाम हमारे सामने खुलते हैं। इस पर अनुसंधान होना चाहिये कि भारत नाम किससे संबंधित है। हजारों साल पहले हम जो जीवन जीते थे, और इसके बारे में कहा गया है कि जीवन जीने की कला है। मेरा निवेदन है कि जीवन कला भी है और जीवन विज्ञान भी है। लेकिन कला और विज्ञान अलग - अलग नहीं हैं। और जब मैं देख रहा था ऋषभदेवजी के बताये हुए सूत्र जिनका यहाँ बार - बार उल्लेख किया गया। 6 सूत्र हैं - असि - असि का अर्थ है तलवार, रक्षा का शस्त्र। पहला स्थान है असि का, आक्रमण के लिये शस्त्र नहीं, रक्षा के लिये, धर्म की रक्षा के लिये, राष्ट्र की रक्षा के लिये। सबसे पहले असि इसलिये रखा गया कि खेती को सुरक्षित रखना होगा, जंगली जानवरों से, खेती को सुरक्षित रखना होगा पड़ोसियों से और सुरक्षा के लिये कभी - कभी शस्त्र की आवश्यकता भी होगी। लेकिन यदि शस्त्र है तो उसके उपयोग की जरुरत नहीं पड़ेगी। शस्त्र है, यह जानकारी आक्रमणकारी को गलत रास्ते पर चलने से रोकती है, इसके बाद ज्ञान की बात आई है - मसि। मसि मायने स्याही, लेखन लिखने के लिये स्याही चाहिये, अब तो खैर फाउंटेन पेन में स्याही भरी है लेकिन मसि बहुत आवश्यक है और हजारों साल पहले इसकी जानकारी अर्हत् वचन, जनवरी 2000

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