Book Title: Arhat Vachan 2000 01
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 27
________________ इसकी प्रथम विशेषता है। निष्कर्ष एक नहीं अनेकों साक्ष्यों के साम्य को देखते हुए मैंने तो यही निष्कर्ष निकाला है कि श्रमण जैन मान्यता के अनुसार ऋषभदेव द्वारा प्रदर्शित कृषि, असि, मसि, वाणिज्य, कला, शिल्प की षट् विद्याओं के प्रति अपने आधार स्वरूप मानव ने उन्हें उनके शासन काल में ही अत्यंत प्रधानता देते हुए कृषि, गौ और वृषभ की मूर्तियाँ बनाकर सर्व कामना पूर्णकर्ता मान पूजना प्रारम्भ कर दिया रहा।41 उसी परम्परा के चलते हुए हा, मा. धिक वाली दंड व्यवस्था तथा ब्राह्मी, सुन्दरी संस्कृति में विदुषियों को सम्मान तथा विशेष स्थान का भी ध्यान रखा गया जो मनुस्मृति की मान्यताओं से सर्वथा विपरीत है। जैन मान्यतानुसार जिन चार गतियों में भ्रमण करते मानव, देव, तिर्यन्च और नारकी दर्शाये गये हैं42 उनमें से एक अर्थात् देवों में इन्द्र को भी पूज्य मान लिया गया जो जैन मान्यतानुसार तीर्थंकर की सेवा में हरदम तत्पर रहता है। उसी ऋषभ (वृषभ) को परमात्मा, अर्हन, केवली, देवों का देव43 भी वेद रचयिता जानते रहे, मानते रहे। आत्मा को परमात्मा जानकर 44 उसकी मुक्ति का लक्ष्य भी इष्ट रहा। 45 आप्त, जो शुद्ध ज्ञान स्वरूपी कैवल्य का द्योतक है, ही श्रेष्ठ रहा। यही स्पष्ट करा देता है कि उस काल में मान्य अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी आदि में अग्निकाय तथा अग्निकायिक, वायुकाय तथा वायुकायिक, जलकाय तथा जलकायिक और पृथ्वीकाय एवं पृथ्वीकायिक जीवों तथा इन्द्र, सूर्य आदि में वैमानिक देवों की कल्पना जैनाधार में दर्शाये गये तथा मान्य स्वस्तिक संकेत पर ही आधारित थी। इस स्वास्तिक वाली मृदा मुहरें46 भी खुदाइयों में उपलब्ध हुई हैं। बाद में कुछ स्वार्थपरक - भ्रमित व्यक्तियों ने इसमें जहाँ तहाँ सृष्टिकर्ता परमात्मा 47 की कल्पना करते हुए यज्ञों संबंधी ऋचाओं को जोड़कर इस मूल अहिंसक ग्रन्थ48 को हिंसक बना दिया। ऋग्वेद में उपर्युक्त पूर्व प्रचलित शब्द ही अपने आप में इस बात का ठोस प्रमाण है कि उन्हें तत्कालीन प्रभावना और महत्ता के कारण ही उपयोग में लाया गया। आज उनका अर्थ खींच - तानकर पदार्थ तथा भावार्थ अन्यथा बिठाना, उसकी स्वप्रामाणिकता को नहीं हिला सकता क्योंकि उसमें आधुनिक प्रचलित गणेश, शंकर, कृष्ण, राम, हनुमान नहीं बल्कि वृषभ और ऋषभ हैं। वही महादेव है49, वही ब्रह्मा है50, वही विष्णु जो कि धन लक्ष्मी नहीं 'ज्ञानलक्ष्मी' वान है। उनका लांछन बैल है। यह सारे तथ्य पाठकों को ईमानदारी से स्वीकारना होंगे। अपनी स्वयं की महत्ता दिखलाते हुए स्वयं को मनु कहने वाला वह कौन व्यक्ति था जिसने महिलाओं एवं उपेक्षित वर्गों द्वारा वेदों को पढ़ा जाना वर्जित किया ताकि उसके द्वारा योजनापूर्ण ढंग से जोड़ी गयीं विकृतियाँ पाठकों की पकड़ में न आवे, यह भी खोज निकालना होगा। इसी विकृति का फल है कि आज भारत जैसे अहिंसक देश में हर ओर हिंसा का क्रूर ताण्डव है। कृष्ण की गायें कट रही हैं। निरीह पशु जीवन जीने के लिये छटपटा रहे हैं और मनुष्य मनुष्यत्व को ठुकराकर क्रूर अट्टहास करता सबको यातना दे रहा है। यह सब धर्म के नाम पर हो रहा है क्योंकि भारत हिन्दुस्तान है जहाँ वेदों को मान्यता देने वाले हिन्दू रहते हैं और वेदों को यज्ञ - हिंसा वाला जाना जाता है। पार्श्वनाथ, महावीर और बुद्ध ने इन्हीं भ्रामक विकति और योजनाओं का विरोध कियार तो क्या आश्चर्य? महावीर के गणधर गौतम थे जिन्हें यहाँ भी गौतम मुनि51 कहकर उल्लिखित तो किया गया है किन्तु विद्वानों के लिये ये अत्यन्त संवेदनशील शोध एवं चिन्तन के विषय प्रस्तुत अवश्य करते हैं। सम्पूर्ण भारत में आज भी इस वीतरागी धर्म के प्रतीकों सहित अनेक मंदिर, जैनेतर समाज द्वारा मन्दिर, गिरजाघर, मस्जिद की ही भांति उपयोग किये जा रहे हैं। बेलगांव अर्हत् वचन, जनवरी 2000

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