Book Title: Arhat Vachan 2000 01
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 25
________________ रूप में श्लोक को जिस भूमिका तथा आशय से प्रस्तुत किया गया है वह बेहद अधकचरा, कमजोर और एकांगी है तथा वेद जैसे प्रसिद्ध, ख्यातिप्राप्त, पावन ग्रन्थ की पृष्ठभूमि को समझे बगैर उसके अस्तित्व को ही तुच्छ करा देता है। इसका भान पाठक ऋग्वेद की सूक्तियों को उनके प्रस्तुत पदार्थ तथा भावार्थ को पढ़कर स्वयं आंक सकते हैं। वास्तव में ऋग्वेद उन ज्ञानियों, ऋषियों, तपस्वियों, मनीषियों की स्तुति रूप प्रस्तुति है जिन्होंने उस युग की मानव समाज को कल्पवृक्ष विलीन होने पर जीने के तरीके सिखलाये यथा विद्युत, अग्नि कैसे उत्पन्न की जाये, उसके उपयोग11 और तेज की तुलना 'सेना' और 'राजा' से करते हुए राजा क्या करे या न करे12, मनुष्य के कर्तव्य और निषेध दर्शाये हैं। 13 यहाँ तक कि विद्वान क्या करें और विदुषियाँ क्या करें यह भी दर्शाया है। 14 यही स्पष्ट करा देता है कि अमृता प्रीतम के कथन में सत्यता है कि ऋग्वेद की रचना काल में विदुषियाँ थी और उनका सहयोग ऋचाओं की रचनाओं में अत्यन्त स्वाभाविक और सहज रहा। जैन धर्म की मान्यतानुसार ऋषभदेव की दोनों पुत्रियाँ ब्राह्मी तथा सुन्दरी उस काल की परम विदुषियाँ थीं। अत: ऋग्वेद का कहना कि 'उत्तम विद्या और गुणों से युक्त महिलाओं का ही आश्रय लो', मात्र श्रमण परम्परा में स्वीकृत तथा मान्य होने के कारण उत्तरकालीन आर्य परम्परा में भी मान्य रहा प्रतीत होता है। मानव समाज को लौकिकता का मार्ग दिखलाने वाला यह ग्रंथ आध्यात्मिकता के धरातल पर उठने की भावना रखते हुए जिन गुणी जनों की अर्चा (वन्दना) करता है वे हैं अर्हन् 15, जिन16, केवलि", केशी18, मुनि और वातरशना19 जो जैन श्रमण धर्म में पूज्य अर्हन्त और (आप्त)20 सिद्ध को ही इंगित करते हैं। 'मुझे भी हे प्रभु, अपने जैसा योग्य बनने का मार्ग दिखा'। पदार्थ की आड़ में आज वेदार्थियों ने सूर्य का अर्थ मात्र चमकने वाला सूर्य को ही मान लिया है। यह उनकी बुद्धि की स्थूलता है। क्योंकि सूर्य आत्मा के तेज को, ज्ञान के प्रकाश को भी कहा जाता है। वही देवों का देव है। उपरोक्त सभी संकेत ऋग्वेद की 'संकलन कालीन' ऋचाओं को. उनकी संहिताओं में उल्लिखित नामों के आधार पर पूर्व से चली आ रही श्रमण परम्परा की झांकी दिये बिना नहीं रहते। ऐसा संभव है कि यज्ञ सम्बन्धी ऋचाओं को उत्तरकालीन संहिताओं के माध्यम से ऋग्वेद में बहुत बाद में प्रवेश दिलाया गया हो, किन्तु मूल में तो यह ग्रंथ श्रमण जैन परम्परा से ही प्रभावित दिखता है। - मनुष्यों के बीच नरश्रेष्ठ (अतिउत्तम) 'वृषभ' कहा जाने वाला मात्र बैल अथवा सांड तो हो नहीं सकता , हाँ ये संभव माना जा सकता है कि जिसका चिन्ह वृषभ हो ऐसा 'ऋषभ' 22 इनका भी परम इष्ट रहा है। परमेश्वर के अनन्तत्व और अमरत्व के बारे में कहते हुए अनेक ऋचाएँ 23 बतलाती हैं कि यह जो आप स्वयं को जीतकर आयु रहित कर चुके हैं अर्थात् हे जिन अथवा जिनेन्द्र भगवान - जिन्होंने कर्मों को जीत कर अमरत्व पाया है हमें भी सुरक्षित कीजिये। पुन: आगे भी लिखा गया है कि 'परमेश्वर (आत्मा) अनंत बलों का स्वामी है। मनुष्यों को उन्हें जानना चाहिये। आध्यात्म यज्ञ तप करने वाले उपासकों को उनका ज्ञान है और वे पाप तथा कर्मों को अपने पुरुषार्थ से क्षय कर देते हैं। यहाँ पूरा पूरा कर्म क्षय संबंधी जैन सिद्धान्त ही प्रस्तुत हुआ है जो सिद्धत्व के अनंतत्व और अमरत्व की ओर संकेत करता है। आगे यह भी कहा गया है कि जिनके असाधारणपने को कैवल्य पुकारा जाये वह हे परमात्मा24 ..........। गणधरों जैसे ज्ञानियों ने जिस कल्पना को परमात्मा कहकर पुकारा है वह नरश्रेष्ठ व जितेन्द्रिय है 25, . 26 अपने पुरुषार्थ से प्रजा का मार्गदर्शक, मानवों में सूर्य सा प्रखर तेजस्वी, परमतपी, परम इष्ट अर्हत् वचन, जनवरी 2000

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