Book Title: Arhat Vachan 2000 01
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 45
________________ अर्हत् वच कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर वर्ष - 12, अंक- 1, जनवरी 2000, 43-46 जैन गणित के उद्धारक : डॉ. हीरालाल जैन ■ अनुपम जैन* डॉ. हीरालाल जैन, जन्म शताब्दी वर्ष में उनके द्वारा की गई जिनवाणी की अमूल्य सेवाओं के प्रति श्रद्धांजलि स्वरूप जैन गणित के उद्धार में दिये गये उनके महनीय योगदान को प्रस्तुत आलेख में रेखांकित किया गया है। - सम्पादक जैन साहित्य जगत के देदीप्यमान नक्षत्र डॉ. हीरालाल जैन का जन्म म.प्र. के गाडरवाड़ा जिले के गोंगई ग्राम में 18 सितम्बर 1899 को हुआ था। आप श्री बालचन्द जैन एवं भुतरोबाई दम्पति की सन्तानों में से तीसरे क्रम पर थे। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा ग्राम गोंगई की पाठशाला, उपरान्त गाडरवाड़ा के मिडिल स्कूल तथा जिला नरसिंहपुर के मिशनरी हाईस्कूल में हुई। 15 वर्ष की आयु में आपका विवाह गोटेगाँव के श्री जवाहरलाल जैन की पुत्री श्रीमती सोनाबाई से हो गया। आपने 1920 में बी.ए. की परीक्षा एवं 1922 में एम.ए. (संस्कृत) तथा एल.एल.बी. परीक्षा एक साथ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उ.प्र. सरकार द्वारा प्राप्त अनुसंधान मूलक छात्रवृत्ति के साथ आपने 1922 1925 के मध्य जैन साहित्य एवं इतिहास का विशेष अध्ययन किया। आपने इन्दौर के न्यायाधिपति श्री जे. एल. जैनी की गोम्मटसार के अंग्रेजी अनुवाद में सहायता की किन्तु सर सेठ हुकमचन्दजी के उनके पुत्र श्री राजकुमारसिंह कासलीवाल के शिक्षक के रूप में रु. 500/- प्रतिमाह के यावज्जीवन वृत्ति के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। तदुपरान्त आप किंग एडवर्ड कालेज, अमरावती (विदर्भ- महाराष्ट्र) में संस्कृत के सहायक प्राध्यापक बनकर 1925 से संस्कृत, प्राकृत की सेवा करने लगे। आपकी 5 पुत्रियाँ एवं 1 पुत्र के रूप में कुल 6 सन्तानें थी। जिनमें प्रो. प्रफुल्लकुमार मोदी (पूर्व कुलपति - सागर वि.वि.) का नाम सम्मिलित है। डॉ. जैन 1954 में इस पद से सेवानिवृत्त हुए। 1955 में डॉ. जैन ने बिहार सरकार के आमंत्रण पर जैन धर्म तथा प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा के अध्ययन हेतु वैशाली ( बसाढ़) में एक शोध केन्द्र की स्थापना की जिसके आप 7-8 वर्ष निदेशक रहे। यह संस्थान कालान्तर में अनेक ख्यातनाम विद्वानों का शोध केन्द्र रहा। 1961 में जबलपुर वि.वि. के आमंत्रण पर आपने वैशाली के संस्थान से नाता तोड़कर गृह क्षेत्र में उपस्थित जबलपुर वि.वि. में शोध मार्गदर्शन तथा एम. ए. (संस्कृत) की कक्षाओं में अध्यापन प्रारम्भ किया। इस वि.वि. से वे 1969 तक सम्बद्ध रहे। अनेक शारीरिक रुग्णताओं के बावजूद वे यावत् जीवन प्राकृत, अपभ्रंश की सेवा करते रहे। अंत में 13 मार्च 1973 को इस ज्योतिपुंज का अवसान हुआ । उनके कृतित्व का अब तक सम्यक मूल्यांकन न हो सका किन्तु जो कुछ भी प्रकाशित है उसकी सूची भी बहुत लम्बी है । ' 16 खण्डों में प्रकाशित षट्खण्डागम एवं उसकी धवला टीका जैन दर्शन का आधारभूत * गणित विभाग - शासकीय स्वशासी होल्कर विज्ञान महाविद्यालय, इन्दौर। सचिव - कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, 584 महात्मा गांधी मार्ग, इन्दौर - 452001

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