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इसलिये आज पूरी दुनिया में एक 'वैचारिक शून्यता' विद्यमान है और हर तरफ नये विकल्प - पर्यावरण, प्रकृति और मनुष्य को बचाने के ढूँढे जा रहे हैं। हिन्दु और जैन अर्थशास्त्र उसी दिशा में बढ़ाया गया एक छोटा सा कदम है जिस पर बिना किसी वैचारिक पूर्वाग्रह के विचार होना चाहिए।
_ हिन्दू और जैन अर्थ चिंतन कोई नया नहीं है - वरन् अनादि काल से भारत में जो सांस्कृतिक धारा बह रही है, जो 1200 वर्षों की गुलामी के काल क्रम में भी नहीं टूटी और जिसमें वेद, पुराण, उपनिषद, याज्ञवल्क्य नीति, विदुर नीति, जैन आगम, रामायण, महाभारत इत्यादि अनुपम ग्रन्थ सृजित हुए हैं - उनमें अर्थ चिंतन के सूत्र बिखरे पड़े हैं वही हमारे भारतीय अर्थशास्त्र का आधार हैं। .
अर्थशास्त्र के विद्यार्थी के रूप में जब अर्थशास्त्र की अनेक पस्तकें देखी तो यह प्रश्न जहन से उभरा कि अर्थशास्त्र की भारतीय अवधारणा क्या है? क्योंकि पुस्तकों में तो यूरोपीय अर्थशास्त्रियों की परिभाषाएं उपलब्ध थीं - जो या तो मार्क्स से प्रभावित थीं या फिर पूंजीवाद से। तब हमने अर्थशास्त्र को भारतीय दृष्टि से परखने का प्रयत्न किया और यह पाया कि पश्चिमी अर्थशास्त्र ‘अभाव' पर आधारित है और इसलिए 'लाभ' ही उसका प्राण तत्व है, जबकि भारतीय अर्थशास्त्र "बाहुल्यता' पर आधारित है और सबकी समृद्धि उसका प्राण तत्व हैं, इसलिये हमने कहा कि पश्चिमी अर्थशास्त्र ‘अभाव' पर आधारित है, जबकि भारतीय अर्थशास्त्र 'बाहुल्यता' पर। और यह बाहुल्यता हमने समग्र मानवता के लिए चाही है। वेदों की अनेक ऋचाओं में प्रार्थना की गई है और जैन आगमों में ऐसे उल्लेख आते हैं - जिसमें कहा गया है कि हमें भी समृद्धि दो और अन्य लोगों को भी समृद्धि दो।
महावीर जब अपरिग्रह की बात करते हैं, तो वे विकास विरोधी नहीं है, वे 'सम्यक्त्व' की बात करते हैं, उन्होंने कहा भी है कि इच्छाएं अनन्त आकाश की तरह है। उनमें सम्यक् दृष्टि लाई जानी चाहिये।
1987 में होनोलूलू में 'बौद्ध परिप्रेक्ष्य में शान्ति' विषय पर एक संगोष्ठी हुई जिसमें यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि बुद्ध ने अपरिग्रह पर कुछ कहा हो, ऐसा उल्लेख नहीं मिलता। इस पर प्रश्न उठा कि जैन चिंतन में इस पर क्या कहा गया है? उत्तर में कहा गया कि महावीर ने अपरिग्रह पर इतना कुछ कहा है, जिसका कोई जवाब नहीं। महावीर ने कहा -
'असंविभागी न हु, तस्स मोक्खो। इसका अर्थ है कि जो धन का संविभाग नहीं करता वह मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता। अपरिग्रह के सम्बन्ध में इससे ऊँचा वक्तव्य इतिहास में उपलब्ध नहीं है।
हिन्दू और जैन चिंतन में जीवन को देखने की एक समग्र दृष्टि रही है, हमने जीवन को टुकड़ों में नहीं बांटा, हमारे यहाँ कहा गया है कि जीवन - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का समुच्चय है। महावीर ने भी कहा - काम कामे (काम) अर्थ लोलुए (अर्थ) धम्मसद्धा (धर्म) और संवेग (मुक्ति) यह भारत की समन्वित दृष्टि है।
दिन्ट और जैन अर्थशास्त्र 'बाहल्यता' का अर्थशास्त्र है. (Hindu and Jaina Economics is the Economics of Abundance) यह हिन्दू और जैन आर्थिक चिंतन का सारतत्व है, किन्तु सबके लिए समृद्धि और बाहुल्यता आएगी कैसे ?
सबके लिए बाहुल्यता और समृद्धि आएगी सही अर्थों में स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा से। आज
अर्हत् वचन, जनवरी 2000