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होना उसी प्रकार आवश्यक है - जैसे रक्त संचार द्वारा प्रत्येक कोष के लिए प्राणवायु। अत: समाज में निरन्तर अर्थ संचार होते रहना चाहिए। इस अर्थ संचार को सुव्यवस्थित बनाए रखना ही 'अर्थायाम' है।
प्राचीन भारतीय, मनीषा ने प्रारंभ से ही यह अनुभव कर लिया था कि अर्थ का निरन्तर संचार करवाने वाली व्यवस्था ही समाज में अर्थ साम्य बनाए रखेगी। इसीलिए पुराना भारतीय व्यापारी आपूर्ति बनाए रखने में विश्वास करता था। वह इस बात की प्रतिस्पर्धा करता था कि कौन अधिक से अधिक लोगों तक माल, लाभ की कम दर पर भी पहँचायेगा। जबकि पश्चिम का व्यापारी प्रत्येक बार सामान की बिक्री पर एक निश्चित लाभ' लेना आवश्यक मानता है। इसीलिये पश्चिम के लिए 'लाभ' ही सब कुछ है।
पश्चिम का पूरा चिंतन 'लाभ' पर आधारित है। इसलिये वह 'अभाव' की बात करता है। बाजार में चीजों का अभाव पैदा करो, भले ही कृत्रिम कमी पैदा करो - ताकि अधिक से अधिक 'लाभ' कमाया जा सके। इसलिये हिन्दू और जैन अर्थ चिंतन 'बाहुल्यता एवं समृद्धि' का चिंतन है। और हमने सबके लिए सुख, समृद्धि और स्वास्थ्य की कामना की है। महावीर ने कभी समृद्धि का विरोध नहीं किया, वे इच्छा के विरोधी नहीं हैं - इसलिये समृद्धि के भी विरोधी नहीं हैं। उन्होंने कहा - "इच्छा ह आगास समा अणंतया" (इच्छा आकाश के समान अनन्त है)। हाँ, उन्होंने 'सम्यक्त्व' की बात की - सम्यक दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र।
इसीलिये हिन्दू और जैन अर्थशास्त्र भविष्य का अर्थशास्त्र है। वह 21 वीं सदी का अर्थशास्त्र है। जिसमें इस्लाम के ब्याज रहित समाज के निर्माण, मार्क्स के शोषण रहित समाज के निर्माण, गाँधी के विकेन्द्रीकृत अर्थ रचना के निर्माण, और यीशु के कल्याणकारी समाज के तत्व छिपे हुए हैं। जो समग्र विश्व को पर्यावरण के खतरों से मुक्ति दिला सकता है।
किन्तु यह होगा कैसे? इस सम्बन्ध में कुछ बातों पर विचार करना अत्यावश्यक
80 के दशक में जब सोवियत रूस में साम्यवाद का बुर्ज ढह गया और पूरी दुनिया को साम्यवादी विचार धारा में रंगने का स्वप्न तिरोहित हो गया तथा मार्क्सवाद अपनी शताब्दी भी नहीं मना सका। अपने ही अन्तर्विरोधों से साम्यवादी विचारधारा का पतन हो गया जबकि इस सम्बन्ध में 70 के दशक से ही घोषणाएं की जाती रही हैं। इसलिये बुडापेस्ट, मॉस्को आदि पेरिस की गलियो में अर्थशास्त्र की उन पुस्तकों को नष्ट किया गया - जिनके माध्यम से पिछले 75 वर्षों तक युवा पीढ़ी को 'साम्यवादी विचारधारा' की शिक्षा दी जाती रही थी। मार्क्सवाद की यह एक बड़ी हार थी। सोवियत साम्राज्य और मार्क्सवादी विचारधारा के इस पतन को यूरोप के पूंजीवादी देशों ने अपनी विजय माना और पूरी दुनिया को यह संदेश देने का प्रयत्न किया कि यह उनकी विचार धारा - 'पूंजीवादी विचारधारा' की विजय है। खुले बाजार के उन्मुक्त उपभोक्तावाद को दुनिया पर लादने का उनका यह प्रयत्न इसी मानसिकता का परिणाम है। जबकि ऐसा नहीं है। स्वयं पश्चिम के आर्थिक विचारक और दार्शनिक यह घोषणा कर रहे हैं कि पूंजीवाद का यह सूरज, यदि हम बहुत उदारता से गणना करें तो 2015 से 2025 के बीच अस्त हो जाएगा। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री शुम्पटर से किसी ने पूछा था - "क्या पंजीवाद जिंदा रहेगा?" तो उनका उत्तर था - 'नहीं', वह जीवित नहीं रह सकेगा। क्योंकि पूंजीवाद के पतन के बीज स्वयं उस व्यवस्था में ही निहित हैं।
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अर्हत् वचन, जनवरी 2000