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दुनिया में कहीं भी पूर्ण और स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा विद्यमान नहीं है यूरोप और अमेरिका में जो स्वयं को स्वतंत्र प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था का नेतृत्वकर्ता राष्ट्र मानते हैं - वे भी सही अर्थों में एकाधिकारवादी अर्थव्यवस्थाएं हैं। यद्यपि दुनिया में पूर्णस्पर्धा (Free Competition) अपूर्ण स्पर्धा (Incomplete Competition) और एकाधिकार (Monopoly) पर हजारों पुस्तकें लिखी गई है, पर अभी तक विश्व में कहीं भी अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में पूर्ण प्रतिस्पर्धा विद्यमान नहीं है। बर्नार्ड शॉ और सेम्युलसन ने 1854 - 55 में ब्रिटिश पार्लियामेंट में जब कंपनी अधिनियम पर चर्चा हो रही थी - तब रॉबिन्स और हेयक ने इसे एकाधिकारवादी कदम बताया था।
पेटेन्ट्स, कॉपी राइट, बौद्धिक सम्पदा कानून ये सब एकाधिकारवादी कदम हैं। खाद्यान्न, दूध और मक्खन की विपुलता अथवा मूल्यों में लगभग समानता तभी तक है जब तक इनका पेटेन्ट या ट्रेड मार्क नहीं है। आप गेहूँ का ट्रेडमार्क पंजीयन करा लें, उसका मूल्य बढ़ जाएगा।
इसलिये भयानक मूल्य वृद्धि ने पूंजीवाद के इतिहास को लिखा है। पिछले 3000 वर्षों का इतिहास लगातार मूल्य वृद्धि का इतिहास रहा है। इसलिये हिन्दू और जैन चिंतन पर आधारित अर्थव्यवस्था 'मूल्यों को गिराने वाली अर्थ व्यवस्था' रहेगी।
प्राचीन भारत में जैन राजाओं के शासन काल में सही अर्थों में 'स्वतंत्र स्पर्धा विद्यमान थी। इसलिये समृद्धि चारों और फैली हुई थी - यहाँ तक कि जैन व्यापारी राजाओं को ऋण दिया करते थे और अपने सार्थवाहों में स्वयं की पूंजी लगाकर लोगों को व्यापार के लिए विदेश ले जाते थे। इसलिये 'शुद्ध स्पर्धा' समृद्धि की वाहक है।
दूसरे समृद्ध, विकासशील और गरीब देशों की एक विकराल समस्या 'बेरोजगारी' है, जैन और हिन्दू अर्थ चिंतन में इसका समाधान क्या है? तो इसका उत्तर है 'स्व नियोजन' (Self -Employment) यद्यपि मार्क्स और कीन्स ने स्व-नियोजन में लगे लोगों को अर्थशास्त्र के अध्ययन की परिधि में नहीं लिया है किन्तु 'स्व - नियोजन', जीवन निर्वाह के ध्येय से अपनाया जाता है - 'लाभ' उसका एक मात्र ध्येय नहीं है - इसलिये बेकारी निवारण का वह अचक साधन बन सकता है और सभ्य सरकारें इसके लिये बाजार में ब्याज रहित ऋण का प्रावधान कर सकती हैं, 'सबको काम - सबका नियोजन' हमारा ध्येय वाक्य होगा।
सही अर्थों में महावीर के अर्थशास्त्र में भौतिकवाद और आध्यात्मिकता का गजब का समन्वय है, इस दिशा में इतिहास की खोज और चिंतन का उन्मेष समय की बहुत बड़ी आवश्यकता है। इस दिशा में बढ़ाया गया कदम कुछ नये क्षितिजों की खोज कर सकता है। आइये, इस ओर हम अपने कदम बढायें। सन्दर्भ - 1. महावीर का अर्थशास्त्र, आचार्य महाप्रज्ञ, संपादक मुनि धनंजय कुमार, आदर्श साहित्य संघ प्रकाशन, चुरू,
प्रथम संस्करण, 1994, पृष्ठ 1261 2. हिन्दू अर्थशास्त्र, प्रो. उदय जैन, 'प्रस्तावना' डॉ. मुरली मनोहर जोशी, अर्चना प्रकाशन, बी-17, दीनदयाल __परिसर, ई-2, महावीरनगर, भोपाल, प्रथम संस्करण, पृष्ठ 4 3. "हिन्दू अर्थशास्त्र', प्रो. उदय जैन, पृष्ठ 24
प्राप्त - 20.8.99
अर्हत् वचन, जनवरी 2000