Book Title: Arhat Vachan 2000 01
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 26
________________ ऋषभ है, वृषभ है, केशी है, वातरशना है, अर्हन है, सूर्य के समान सब लोकों को प्रकाशित कर रहा है, सर्वत्र व्याप्त है 27 सर्वज्ञ 28 है अर्थात् परम शुद्ध (ज्ञान) स्वरूपी आत्मा है जिसमें लोक का प्रत्येक ज्ञेय झलक रहा है। वही वृषभ आनंद वर्धक गुणों से आनंद गमन करता है। वही मुनि ( मौनि ) 29 विज्ञान युक्त आत्मा एवं मनः सत्य वाला देवों का देव है। वह केशी तेज युक्त है, ज्योति युक्त आत्मा है, नग्न है। वही ऋषभ, परमात्मा, कर्म शत्रुओं को नाश करने वाला है। उसी परमात्मा ( ऋषभदेव ) की उच्चरित दिव्यध्वनि को सरस्वती कहकर पूज्या माना गया है जो ऋग्वेद में भी मान्य है। 30,31,32 जबकि विष्णु के साथ 'लक्ष्मी' को याद भी नहीं किया 33 गया। विशेषकर वाणी और बुद्धिवर्धक ज्ञान को ही धन माना है। 34 प्रबुद्ध पाठक इस तथ्य को अनदेखा नहीं कर सकते कि भला विष्णु के साथ सरस्वती का संयोग कैसे था ? एक ओर तो ऋषभ, वृषभ और उनकी कृषि प्रधान व्यवस्था को ऋग्वेद में दर्शाया गया है आखेट को नहीं। दूसरी ओर अर्हन, केशी, जिन और कैवल्य जैसी आध्यात्म और तप की चरम स्थितियों को भी याद किया गया है जो श्रमण धर्म का चरम लक्ष्य रही है। जिसके अन्तर्गत वर्ण भेद रहित मनुष्यता ही मान्य है। 35 जो सह अस्तित्वता सभी जीवों के साथ स्वीकारती है। 36 तिस पर आश्चर्य की बात ये है कि हा, मा, दण्ड व्यवस्था को स्वीकार करने वाली ऋषभ कालीन दण्ड व्यवस्था को भी याद किया है किन्तु वर्तमान में प्रचलित जैनेतर मान्यताओं के शंकर, गणेश, कृष्ण, हनुमान, राम आदि संज्ञाओं का उल्लेख तक नहीं किया। अरिष्टनेमि 37 को बार- बार 'धुरी' मानकर याद करने वाली ऋचाओं के आस - पास भी कृष्ण को स्मरण नहीं किया गया जबकि वे अरिष्टनेमि (नेमिनाथ), 22 वें तीर्थंकर के चचेरे भाई थे। यह सब देखते हुए ऐसा ही प्रतीत होता है कि ऋग्वेद मूलत: एक अहिंसक जैन ग्रन्थ रहा है 38, जिसे बाद में जोड़ी गयी संहिताओं के आधार पर यज्ञों और हिंसा की ओर मोड़ दिया गया। महावीर को इसी हेतु पथ भ्रष्ट समाज को पुनर्जाग्रत करना पड़ा। अहिंसा की परम्परा महावीर काल में पुनः स्थापित होते हुए भी गौतम बुद्ध के मध्यमार्गी प्रवाह की ओर सहज मुड़ गयी। उसे भी श्रमण नाम दे दिया गया । किन्तु पूर्व से चली आ रही श्रमण जैन परंपरा मात्र ऋषभ प्रदर्शित एवं प्रस्थापित दीर्घ परंपरा सिद्ध होती है। अर्हन्तों की परंपरा उस गौतम बुद्ध समर्थक काल से भी अत्यन्त प्राचीन काल में जैन श्रमणों द्वारा स्वीकारी गयी थी जिसके साक्ष्य मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त पाँच हजार वर्ष पूर्व कालीन कायोत्सर्गी नग्न धड़, सीलें, वृषभ के टेराकोटा अवशेष आदि हैं जिनमें ऋषभदेव को ही धर्म प्रवर्तक माना गया था। घोर तप से बढ़ी हुइ लटों के कारण जिन्हें केशी कहा गया था और दिगम्बरत्व के कारण वातरशना पुकारा गया था। आज भी मथुरा अवशेषों के रूप सारनाथ संग्रहालय में देखे जा सकते हैं। अरिष्टनेमि उन्हीं अर्हन्तों की कड़ी में 22 वें तीर्थंकर हैं जिनके नाम से उल्लिखित एक पद्मासन मुद्रा (मूर्ति) लखनऊ संग्रहालय में अवस्थित है जो अरिष्टनेमि नाम की ऐतिहासिक महत्ता को स्थापित करती है। ऋग्वेद उन्हीं 22 वें तीर्थंकर के बाद की संकलित कृति प्रतीत होती है जो उन्हें याद भी करती है और शौरसेनी प्राकृत में भी लिखित है। शौरसेनी प्राकृत संस्कृत का वह रूप मानी जाती है जो सूरसेन जनपद की भाषा ( मथुरा नेमिनाथ के पिता की राज्य की ही भाषा) ही थी। भाषाविदों में विशेषतः यूरोपियन विद्वानों (जर्मन) ने तो इसमें दिगम्बरी भाषा का संकेत दिया है तथा इसका उल्लेख डॉ. सरयूप्रसाद अग्रवाल, लखनऊ द्वारा लिखित प्राकृत विमर्श 40 में स्पष्ट देखा जा सकता है। वररूचि की भाषा भी यही शौरसेनी है जो ऋग्वेद में प्रयुक्त है तथा आज भी दक्षिण भारत की भाषाओं में जिसकी झलक मौजूद है। अत्यन्त अल्प शब्दों में अति व्यापक अर्थ की प्रस्तु अर्हत् वचन, जनवरी 2000 24

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