Book Title: Arhat Vachan 1999 07 Author(s): Anupam Jain Publisher: Kundkund Gyanpith Indore View full book textPage 8
________________ मैं स्वयं अपनी ओर से तथा कुन्दुकुन्द ज्ञानपीठ की ओर से दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ। सम्पादकीय के प्रथम तीन बिन्टओं पर भी शीघ्र ही कोई संस्था कार्य प्रारम्भ करेगी, ऐसी आशा है। बीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में सामाजिक/अकादमिक क्षेत्र में कार्यरत संस्थाओं को सार्थक परिणाम प्राप्त करने हेतु अपनी योजनाओं को इस प्रकार व्यवस्थित करना चाहिये जिससे कि उनके कार्यों में (1) निरन्तरता (Continuity) (2) विश्वसनीयता (Creditability) (3) सुसंगतता (Consistency) का समावेश हो। मात्र तात्कालिक महत्व की योजनाओं को हस्तगत करने से राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं की साख में अभिवृद्धि नहीं होती। सामाजिक/अकादमिक क्षेत्र में कार्यरत संस्थाओं से मेरा नम्र निवेदन है कि वे 1. संसाधनों के केन्द्रीयकरण 2. कार्यों के विकेन्द्रीकरण 3. वित्तीय नियंत्रकों द्वारा अकारण प्राथमिकताओं में परिवर्तन से उत्पन्न आर्थिक संकट को रोकने 4. पुनरावृत्ति को रोकने . 5. संस्थाओं के मूल प्राण कार्यकर्ताओं में समर्पण के भाव को जाग्रत करने एवं उनकी रूचियों में स्थायित्व लाने बदलते परिवेश में संस्था एवं कार्यकर्ताओं की तात्कालिक एवं दीर्घकालिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ध्यान दें। ये सब करने से ही संस्थाएँ अपनी साख को बनायें रखते हुए धर्म, समाज और राष्ट्र को कुछ सार्थक योगदान दे सकेंगी। वरना अर्थ प्रधान इस युग में केवल लच्छेदार भाषणों, जोड़ तोड़ के चुनावों, शाब्दिक आश्वासनों या भावनाओं के प्रवाह से कुछ नहीं होने वाला है। हर संस्था थोड़ा-थोड़ा कार्य भी नियमित, निरन्तर एक ही क्षेत्र में, एक लक्ष्य लेकर करें तो भी अन्त में बड़ी उपलब्धि मिल सकती है। आज की फिक्र कर, कल किसने देखा है जैसी निराशावादी बातें करने वाले तथा कथित सामाजिक कार्यकर्ता निजी जीवन में तो पूरी योजनायें बनाते हैं, 50 साल आगे को ध्यान में रखकर कार्य करते हैं किन्तु सामाजिक कार्य में दृष्टि तात्कालिक सम्मान पर रहती है। यह दृष्टि समाज के लिये घातक । से कम अकादमिक संस्थाओं को ऐसे कार्यकर्ताओं से दूरी ही बनाये रखना श्रेयस्कर अंत में मैं प्रस्तुत अंक के सभी विद्वान लेखकों तथा सम्पादक मंडल के सभी माननीय सदस्यों के प्रति आभार ज्ञापित करता हूँ जिनके सहयोग से ही प्रस्तुत अंक वर्तमान रूप में प्रस्तत किया जा सका है। संस्थाध्यक्ष माननीय श्री देवकमारसिंहजी कासलीवाल की सतत अभिरूचि एवं प्रेरणा श्लाघनीय है। पाठकों की प्रतिक्रियाओं का स्वागत है। 21.7.99 डॉ. अनुपम जैन अर्हत् वचन, जुलाई 99Page Navigation
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