Book Title: Arhat Vachan 1999 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

View full book text
Previous | Next

Page 35
________________ वर्ष- 11, अंक-3, जुलाई 99,33-42 अर्हत् वचन । ___ रसायन के क्षेत्र में जैनाचार्यों का योगदान (कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर - नन्दलाल जैन * कलिंग पुरस्कार विजेता वाल्डेमार केंफर्ट' ने बताया है कि संसार के समस्त वैज्ञानिकों में दो - तिहाई वैज्ञानिक प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से रसायनज्ञ होते हैं। इस कथन से वर्तमान रसायन - विज्ञान के विषय क्षेत्र की महत्ता और व्यापकता का अनुमान लगता है किन्तु प्राचीन काल में इस शब्द का उपयोग और अर्थ पर्याप्त सीमित था। संभवत: यह तो दसवीं सदी के बाद से ही व्यापक और व्यापकतर होता रहा है। प्राचीन जैन शास्त्रों में यह शब्द बहुत कम स्थानों पर मिलता है। स्थानांग (8.26) एवं मूलाचार (6.452) में यह शब्द चिकित्सा के भेदों के रूप में एक- एक बार आया है जिसका अर्थ टीकाकार वसुनंदि (ग्यारहवीं सदी) और वृत्तिकार अभयदेव (ग्यारहवीं सदी) ने किया है। वसुनंदि अभयदेव 1. चर्मशैथिल्य / श्वेतकेश निराकारक शास्त्र 1. स्वास्थ्य वर्धक शास्त्र 2. दीर्घायुष्य - दाता शास्त्र 2. आयुष्यवर्धक शास्त्र 3. अमृत-तुल्य रस का शास्त्र 4. बुद्धिवर्धक पदार्थों का शास्त्र इससे यह अनुमान लगता है कि दसवीं - ग्यारहवीं सदी तक रसायन का विषय क्षेत्र आहार और आयुर्वेद रहा होगा। वस्तुत: वाजीकरण और क्षारतंत्र तथा अगदतंत्र भी इसके विशेष विभाग ही माने जाते होंगे। दसवीं सदी के पूर्व का समय प्राकृतिक पदार्थों का ही था। पारद के उपयोग से निर्मित एवं खनिज पदार्थ भी सामने आने लगे थे। वास्तव में 'रसायन' 'रस' शब्द का व्युत्पन्न है। अत: 'रस' के अर्थ से भी 'रसायन' को व्याख्यायित किया जा सकता है। श्वेताम्बर आगमों में यह शब्द प्राय: 150 स्थानों पर मिलता है। दिगम्बर शास्त्रों में भी यह उपलब्ध है, पर उसकी संख्या अभी प्राप्त है। फिर भी. इसके अनेक अर्थ हैं, जो मुख्यत: आहार और आयुर्वेद से ही संबंधित हैं। इन्हें नीचे दिया जा रहा है - रस 1. भोजन के चयापचय से उत्पन्न धातु - विशेष (सात धातुओं में प्रथम...ग्रंथस्राव आदि) 2. छह स्वादिष्ट वस्तुयें - घृत, दुग्ध, दधि, तेल, गुड़, लवण तथा गरिष्ट आहार। यह कर्म - साधनात्मक अर्थ है। इसका भाव साधनात्मक अर्थ भी किया जा सकता है। सागारधर्मामृत में व्यक्त गोरस, इक्षुरस, फलरस और धान्य रस इसके आहारपरक अर्थ के ही द्योतक 3. स्वाद, जिहेंद्रिय का विषय, आहार से संबंधित शब्द है। इसी के आधार पर रसनाजय, रसपरित्याग, रसगृद्धि, रसगारव आदि शब्द विकसित हुए हैं। 4. कर्मवाद में 'रस' नाम की नामकर्म की एक प्रकृति है जिसके कारण वस्तुओं के तिक्तादि पंचरसों का अनुभव होता है। * निदेशक-जैन केन्द्र, 8/662, बजरंगनगर, रीवा (म.प्र.)

Loading...

Page Navigation
1 ... 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88