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की अभक्ष्यता भी, संभवत: अधिक हिंसा की दृष्टि से (जमीन खोदकर फल निकालना आदि) की गई है। पर आयुर्वेदज्ञ और आज का विज्ञान इन्हें रोगप्रतीकार - सहता - वर्धक मानने लगा है।
तेरहवीं सदी तक के साहित्य में खाद्य- कोटियों के स्थूल विवरण ही हमें मिलते हैं, उनके रासायनिक संघटन और कैलोरी-क्षमता की चर्चा नहीं है। फिर भी, बीसवीं सदी में आहार विज्ञान जीव - रसायन का विशिष्ट अंग बन गया है। इसके सूक्ष्म परिज्ञान एवं उपयोग से हमारी दीर्घजीविता में पर्याप्त वृद्धि हुई है। तंडुल वैचारिक में तो इसका भी परिकलन दिया गया है कि एक सामान्य व्यक्ति सौ वर्ष में कितना अन्न खा सकता है। 21 (ब) औषध विज्ञान - यह बताया गया है कि रसायन का विकास औषध विज्ञान से ही हुआ है। वस्तुत: तो आहार को भी औषध ही माना जाता है। जैनों के प्राणावाय पूर्व में इस विज्ञान की भिन्न शाखाओं का वर्णन है। औषध शास्त्र के आठ प्रमुख अंगों में बाल चिकित्सा, काय चिकित्सा, विष - शास्त्र एवं दीर्घजीविता मुख्यत: रसायन से संबंधित हैं। इनके अंतर्गत शास्त्र वर्णित 64 रोगों का 29 भौतिक विधियों तथा अनेक प्राकृतिक पदार्थों के माध्यम से उपचार किया जाता है। ये सभी पदार्थ रासायनिक यौगिक और उनके मिश्रण है। अनेक प्राकृतिक पदार्थों के क्वथन, आसवन, ऊर्ध्वपातन आदि से निष्कर्ष प्राप्त किये जाते हैं। अनेक प्रकार के मिश्रण (त्रिफला आदि) तैयार किये जाते हैं। औषध विज्ञान में प्रयुक्त अनेक विधियां आज के रसायन विज्ञान का प्रमुख अंग बनी हुई हैं। इसी प्रकार विष विज्ञान के अंतर्गत जंगम एवं पादप विषों का वर्णन है। दीर्घजीविता के अंतर्गत ऐसे
औषध रसायन बनाये जाते हैं जो वृद्धावस्था को विलंबित करें और बल - वीर्य को बढ़ाते रहें। औषध रसायन के अनेक संदर्भ भिन्न - भिन्न शास्त्रों में आते हैं। 9वीं सदी के उग्रादित्याचार्य ने इन्हें 'कल्याणकारक' के रूप में प्रस्तुत किया है। 22 वस्तुत: इस ग्रंथ को अहिंसक औषधों का रसायन कहना चाहिये। औषध विज्ञान में औषधों का प्रभाव शरीर तंत्र में विद्यमान अनेक रसायनों से होने वाली रासायनिक प्रक्रियाओं का ही फल है। उपसंहार
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि आगम युग से लेकर तेरहवीं सदी तक के जैनाचार्यों ने रसायन की सैद्धांतिक एवं प्रायोगिक शाखाओं के न्यूक्लियन तथा विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया है। इस योगदान की विवेचना सम - सामयिक दृष्टि से ही मूल्यांकित की जानी चाहिये। इस विवेचना में यह पाया गया है कि नवमी- दसवीं सदी तक का जैन शास्त्रों में वर्णित रसायन विज्ञान अन्य दर्शन - तंत्रों की तुलना में उच्चतर कोटि का रहा है। यह ज्ञान समग्र रसायन के विकास की परम्परा में मील के पत्थर के समान है। यह भी स्पष्ट है कि उपरोक्त कालसीमा में अर्जित ज्ञान प्राकृतिक पदार्थों एवं मानसिक चिंतनों पर आधारित रहा है। पिछली कुछ सदियों में परिवर्तित एवं संश्लेषित पदार्थ भी इसकी सीमा में आये हैं। साथ ही, क्रिया और क्रियाफल के बीच क्रियाविधि संबंधी अंतराल का परिज्ञान भी बढ़ा है और रसायन भी अधिक सूक्ष्मता की ओर बढ़ा है। संदर्भ
1. वाल्डेभार कैंफर्ट : साइंस टुडे एण्ड टुमारो, डैनिस डॉक्सन, लंदन, 1947 2. नथमल, मुनि : आगम शब्दकोश, जैन विश्व भारती, लाडनूं, 1980 3. वही दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन, तेरापंथी महासभा, कलकत्ता, 1967 अर्हत् वचन, जुलाई 99