Book Title: Arhat Vachan 1999 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 69
________________ पुस्तक समीक्षा प्रतिष्ठा विधि का एक आदर्श ग्रन्थ प्रतिष्ठा प्रदीप - श्री दिगम्बर जैन प्रतिष्ठा विधि विधान। लेखक एवं सम्पादक - संहितासूरि पं. नाथूलाल जैन शास्त्री, प्रकाशक - वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति, गोम्मटगिरि, इन्दौर एवं श्रमण संस्कृति विद्यावर्द्धन ट्रस्ट, इन्दौर। द्वितीय संस्करण, 1998, पृ. 24 + 234 + परिशिष्ठ + आर्ट पेपर पर अनेक चित्र, स्केच आदि। मूल्य - रु. 150 = 00। समीक्षक - डॉ. अनुपम जैन, इन्दौर। 'समाज में सामान्य रूप में दो प्रकार के क्रियाकाण्ड प्रचलित हैं। किन्तु पंचकल्याणक द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा की पूज्यता में कोई विरोध नहीं है। एक क्रियाकाण्ड में पंचामृताभिषेक, चतुर्निकाय के देवी - देवताओं की पूजा व उनकी मूर्ति स्थापना, हरित पुष्पफलों से पूजा और महिलाओं द्वारा प्रतिमाभिषेक ये चार भी हैं। दूसरे क्रियाकाण्ड में उक्त चारों क्रियायें नहीं होती। प्रथम का विधि-विधान आशाधर प्रतिष्ठासारोद्धार व नेमिचन्द्र प्रतिष्ठातिलक द्वारा तथा द्वितीय का जयसेन (वसुविन्दु) आचार्य के प्रतिष्ठा पाठ द्वारा किया जाता है। सभी प्रतिष्ठा ग्रन्थों में बिम्ब प्रतिष्ठा संबंधी मुख्य - मुख्य मन्त्र समान हैं। अंकन्यास, तिलकदान, अधिवासना, स्वस्त्ययन, श्रीमुखोद्घाटन, नेत्रोन्मीलन, प्राणप्रतिष्ठा, सूरिमन्त्र ये बिंबप्रतिष्ठा के प्रमुख मन्त्र संस्कार हैं, जो सभी प्रतिष्ठा ग्रन्थों में समान हैं और महत्व भी इन्हीं का ही है। इनके सिवाय बाह्य क्रियाकाण्ड भिन्न हैं। यथा यागमंडल में एक विधि द्वारा पंचपरमेष्ठी, चौबीस तीर्थंकर आदि की पूजा है, तो दूसरी विधि में चतुर्निकाय देवी-देवताओं की पूजा है। जलयात्रा आदि में भी पूजा संबंधी विभिन्नता है। अत: जहाँ जैसी मान्यता हो, उनमें हस्तक्षेप न करते हुए सामाजिक शांति और धार्मिक सहिष्णुता बनाये रखना चाहिये। 'विद्यते न हि कश्चिदपाय: सर्वलोक परितोषकरो यः।' की नीति का स्मरण कर हृदय में उपगृहन और वात्सल्य को स्थान देना चाहिये।' संहितासूरि पं. नाथूलालजी शास्त्री ने समीक्ष्य कृति की प्रस्तावना में उक्त कथन कर समाज में समन्वय एवं सद्भावना के विकास का श्लाघनीय प्रयास किया है। विद्यावयोवृद्ध पंडितजी ने इस पुस्तक में प्राचीन प्रतिष्ठा पाठों का गहन अध्ययन कर आगम सम्मत प्रतिष्ठा विधि का सांगोपांग विवेचन किया है। इसी कारण वे पंथ व्यामोह से ऊपर उठकर जहाँ प्रतिष्ठा के आवश्यक अंग हवन (यज्ञ) का समर्थन करते हैं वहीं ब्राह्याडम्बरों, अनावश्क क्रियाकाण्डों एवं प्रदर्शन का भी विरोध करते हैं। आपने पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं की प्रामाणिकता एवं पवित्रता बनाये रखने का आग्रह किया है। प्रतिष्ठा से सम्बद्ध सभी पक्षों (तथ्यों) - प्रतिमा निर्माण, मूर्ति परीक्षण, मन्दिर वास्तु, वेदिका निर्माण, प्रतिष्ठा मुहूर्त, प्रतिष्ठा मंडप, यज्ञ शाला आदि सम्बन्धी समस्त जानकारी देने के साथ ही विभिन्न पूजाओं, स्तोत्रों, मंत्रों का संकलन सिलसिलेवार ढंग से किया गया है। इस कारण यह ग्रन्थ सभी प्रतिष्ठाचार्यों विशोषत: नवीन प्रतिष्ठाचार्यों के लिये आदर्श है। विषय की सम्पूर्णता एवं सुसंगतता के कारण ही कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ परीक्षा संस्थान ने इसे अपने प्रतिष्ठा रत्न' पाठ्यक्रम में पाठ्य पुस्तक रूप में स्वीकृत किया है। कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर के निदेशक मण्डल के वरिष्ठतम सदस्य पं. नाथूलालजी शास्त्री की समीक्ष्य कृति के प्रकाशन से कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ के गौरव में भी अभिवृद्धि हुई है। समाज इस अमूल्य कृति को प्रदान करने हेतु पं. जी का सदैव ऋणी रहेगा। श्रेष्ठ प्रकाशन हेतु वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति एवं श्रमण संस्कृति विद्या वर्द्धन ट्रस्ट भी बधाई का पात्र है। मुद्रण आकर्षक, निर्दोष एवं मूल्य उचित है। अर्हत् वचन, जुलाई 99

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