Book Title: Arhat Vachan 1999 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 71
________________ अनुरोध जैन पांडुलिपियों का सूचीकरण किसी राष्ट्र के स्वर्णिम अतीत की स्मृतियों का संरक्षण एवं उन्हें यथावत आगामी पीढ़ी को हस्तांतरित करना वर्तमान पीढ़ी का दायित्व है। वर्तमान में समृद्धि के चरम पर पहुँचे अनेक राष्ट्रों को यह पीड़ा अनेकशः होती है कि उनके पास समृद्ध अतीत के नाम पर कुछ शेष नहीं है। हम भारत के निवासियों को इस बात का सौभाग्य प्राप्त है कि वर्तमान में हम भले ही विकासशील हों किन्तु अतीत में हम समृद्धि के चरम बिन्दु पर पहुंच चुके थे। साहित्य, संगीत, कला एवं विज्ञान के क्षेत्र में भारतीय मनीषियों का अवदान विश्व में प्रसिद्ध है और यह विपुल ज्ञान प्राचीन पांडुलिपियों के रूप में अनेक झंझावातों को झेलता हआ हमें, अल्प मात्रा में ही सही, आज भी उपलब्ध है। श्रमण संस्कृति की जैन परम्परा भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है, बल्कि यदि यह कहा जाये कि श्रमण संस्कृति को अलग करके भारतीय संस्कृति का मूल्यांकन असंभव है तो अतिशयोक्ति न होगी। जैनाचार्यों ने दर्शन, अध्यात्म, साहित्य, व्याकरण, आयुर्वेद, गणित, ज्योतिष आदि अनेकानेक विषयों पर आत्मकल्याण की भावना से प्रेरित होकर विपुल मात्रा में साहित्य का सृजन किया है। 20 वीं शताब्दी की मद्रण क्रांति के बावजद आज भी अनेकों पांडलिपियाँ जैन ग्रन्थ भंडारों में तथा देश - विदेश के प्रसिद्ध पांडुलिपि ग्रंथागारों में सुरक्षित हैं। विगत् शताब्दियों में साम्प्रदायिक विद्वेष एवं जातीय उन्माद के कारण जलाई गई जैन ग्रंथों की होलियों में लाखों बहुमूल्य पांडुलिपियाँ भस्म हो गईं, किन्तु आज भी शेष बचे ग्रंथ यत्र - तत्र विकीर्ण व्यक्तिगत संग्रहों, मंदिरों, सरस्वती भंडारों में दीमक एवं चूहों का आहार बनने के साथ ही सम्यक् संरक्षण के अभाव में सीलन आदि से भी प्राकृतिक रूप से नष्ट हो रहे हैं। महान जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत जिनवाणी की इन अमूल्य निधियों को हम एक बार नष्ट होने के बाद दोबारा सर्वस्व समर्पित करके भी नहीं प्राप्त कर सकते। आज भी हमें अनेक आचार्यों की कृतियों के उल्लेख मात्र ही मिलते हैं। उन कृतियों को हम नहीं पा सकते हैं। पता नहीं किस भंडार में कौन सी निधि छिपी मिल जाय, यह नहीं कहा जा सकता। किन्तु इस हेतु हमें योजनाबद्ध ढंग से दीर्घकालीन प्रयास करने होंगे। श्री सत्श्रुत प्रभावना ट्रस्ट, भावनगर भी इस स्थिति का अनुभव कर रहा था एवं देश के अनेक विद्वानों से इस बाबद हमनें सम्पर्क भी किया। अक्टूबर - नवम्बर 98 में कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर के अध्यक्ष श्री देवकुमारसिंह कासलीवाल एवं सचिव डॉ अनुपम जैन से विस्तृत चर्चा के बाद 1 जनवरी 99 से प्रकाशित जैन साहित्य के सूचीकरण का कार्य प्रारम्भ किया गया है। इससे किसी भी अप्रकाशित पांडुलिपि के प्राप्त होने पर उसके पूर्व प्रकाशित होने के बारे में निश्चित रूप से निर्णय दिया जा सकेगा, किन्तु देश के विभिन्न ग्रामों, कस्बों, नगरों में स्थित जिनालयों, सरस्वती भवनों एवं व्यक्तिगत संग्रहों में स्थित लक्षाधिक प्राचीन जैन पांडुलिपियों का सूचीकरण, संरक्षण एवं संकलन वर्तमान पीढ़ी का दायित्व है। यद्यपि यह दायित्व समाज की शीर्ष संस्थाओं का है तथापि इस दिशा में व्याप्त उदासीनता को देखकर श्री सत्श्रुत प्रभावना ट्रस्ट, भावनगर ने अपने सीमित साधनों के बावजूद यह गुरुतर दायित्व इस आशा एवं अपेक्षा के साथ ग्रहण किया है कि समाज का सक्रिय एवं व्यापक सहयोग हमें प्राप्त होगा। प्रकाशित जैन साहित्य के सूचीकरण के क्षेत्र में गत 5 माह में सम्पन्न कार्य की प्रगति, प्रबन्ध कौशल, सुयोग्य, क्रियाशील, दूर दृष्टि सम्पन्न अकादमिक नेतृत्व, आधारभूत सुविधाओं की उपलब्धता एवं अकादमिक अभिरूचि सम्पन्न श्रेष्ठि काका साहब श्री देवकुमारसिंह कासलीवाल की उदात्त भावनाओं को दृष्टिगत कर इस महत्वपूर्ण परियोजना के क्रियान्वयन का दायित्व कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर को प्रदान किया गया है। श्रुत पंचमी, 18.6.99 को औपचारिक रूप से इस परियोजना का शुभारम्भ भी किया जा चुका है।परियोजना को प्रख्यात गणित इतिहासज्ञ एवं अर्हत् वचन के सम्पादक डॉ. अनुपम जैन, सचिव - कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ अपना मार्ग दर्शन प्रदान करेंगे। आवश्यक तकनीशियनों एवं उपकरणों की व्यवस्था भी कर दी गई है। अर्हत् वचन, जुलाई 99

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