Book Title: Arhat Vachan 1999 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 42
________________ जल - विलयन, धातुओं की अक्रियता आदि) समाहित होते हैं। रासायनिक परिवर्तनों में मिट्टी के घड़े बनाना, बत्ती का जलना, जल में सीप निर्माण, कृषि - उत्पाद, किण्वन, अयस्कों से धातु - निष्कर्षण आदि समाहित हैं। यह पाया गया है कि शास्त्रों में भौतिक परिवर्तनों के उदाहरण अधिक हैं। यही नहीं, जो रासायनिक क्रियायें भी वर्णित हैं, उनकी क्रियाविधि या रासायनिक समीकरणीय व्याख्या भी अनुपलब्ध है। उपरोक्त में से अनेक क्रियाओं का कुंदकुंद ने भी वर्णन किया है। कर्मवाद20 अन्य तंत्रों (दर्शनों) के विपर्यास में, कर्मवाद जैनों का पर्याप्त विकसित सिद्धांत है। कर्म सूक्ष्म परमाणुओं के समूह हैं जो कर्मवर्गणा का रूप ग्रहण कर सशरीरी मूर्त जीव से संबंधित होकर उसे भवभ्रमण कराते हैं। कर्मवर्गणायें राग, द्वेष, मोह, सुख-दुख आदि के रूप में विविध प्रकृति की होती हैं। जीव भी अपनी मानसिक, वाचिक एवं कायिक प्रवृत्तियों एवं मनोभावों के कारण विशिष्ट प्रकृति का होता है। भगवती, प्रवचनसार और परमात्मप्रकाश में इनकी वैद्युत प्रकृति का उल्लेख भी किया गया है। फलत: कर्म और जीव परस्पर में अपनी विरोधी वैद्युत प्रकृति के कारण एकक्षेत्रावगाही एवं अन्योन्यानुप्रवेशी बंध बनाते हैं। यह बंध ईर्यापथिकी क्रियाओं में अदृढ़ होती है और सकषायिकी क्रियाओं में दृढ़ होता है। पर जीव - कर्म के बंध की प्रकृति भौतिक है या रासायनिक, इस पर शास्त्रों में चर्चा नहीं है। तथापि वहां यह अवश्य बताया गया है कि ध्यान और तप की क्रियाओं से यह बंध विच्छिन्न हो सकता है। इस प्रकार, कर्मवाद भी रसायन के एक अंग के रूप में माना जा सकता है। रसायन विज्ञान से संबंधित अन्य विवरण (अ) आहार विज्ञान - प्रारंभ में जैन तंत्र श्रमण - तंत्र का ही प्रतिरूप था। जीवन की त्विकता के लिये आहारचर्या उसका विशिष्ट प्रतिपाद्य रहा। आचारांग से लेकर आशाधर के युग तक इसका वर्णन मिलता है। इसमें काफी समरूपता है। आहार के शारीरिक एवं आध्यात्मिक उद्देश्यों के विवरण के साथ उसके चयापचय की क्रिया से निर्मित होने वाले सप्तधातु तत्वों का विवरण अनेक ग्रंथों में मिलता है। प्रारंभ में साधु के लिये भक्ष्य, अशन, पान, खाद्य एवं स्वाद्य की चतुरंगी चली। बाद में चटनी और लोंग भी इसमें जोड़े गये। इनके शास्त्रीय विवरणों से ज्ञात होता है कि इन खाद्यों में शाक - सब्जियों को विशेष स्थान नहीं था। बाद में जब गृहस्थों की आहारचर्या का वर्णन किया गया, तब उसमें भी इनकी सीमा थी। अभक्ष्यता के मूल चार आधारों पर अनेक पदार्थ अभक्ष्य की कोटि में आ गये। साथ ही, स्वास्थ्य, लोकरूढ़ि आदि भी इनके आधार बने। हिंसा का अल्पीकरण तो भक्ष्यता का प्रमुख आधार रहा ही। वर्तमान विचारधारा के अनुसार, अशन कोटि में कार्बोहाइड्रेट और प्रोटीन आते हैं, पान कोटि में दूध, घी व वसायें आती हैं। स्वाद्य कोटि में खाद्य - मसालें एवं रोगप्रतीकार - क्षमता बढ़ाने वाले पदार्थ आते हैं। आजकल विटामिन - खनिज घटकों के युग के अनुरूप शास्त्रीय जैन आहार - शास्त्र में विशेष कोटि नहीं थी। फिर भी, आयुर्वेद शास्त्र में आहार के जिन रूपों का वर्णन है, वह कैलोरीमान की दृष्टि से उपयुक्त है अभक्ष्य पदार्थों में मद्य, मांस और मधु का प्रमुख स्थान है। इनकी अभक्ष्यता मुख्यत: हिंसक आधार एवं दृष्टिगोचर अनिच्छित प्रभावों के आधार पर की गई है। जमीकंदों अर्हत् वचन, जुलाई 99 40

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