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परमाणु सभी समान एवं परिमंडल होते हैं पर उनके कार्यों के आधार पर उन्हें (1) कारण परमाणु, आदर्श परमाणु, स्वभाव परमाणु और (2) कार्य परमाणु, व्यवहार परमाणु या विभाग परमाणु कहते हैं।' यद्यपि कुंदकुंद के ग्रंथों में कारण एवं कार्य परमाणु का उल्लेख मिलता है पर अनुयोग द्वार' एवं जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति में आदर्श और व्यवहार परमाणु का भी उल्लेख है। व्यवहार परमाणु, वस्तुत: स्कंध ही होना चाहिये क्योंकि यह अगणित आदर्श परमाणुओं से मिलकर बनता है।
परमाणु के विवरण में कुंदकुंद और उमास्वामी ने उसके विस्तार की चर्चा नहीं की है पर त्रिलोक प्रज्ञप्ति (पाँचवीं सदी) में उसका विस्तार अनुमानित है। यह विस्तार व्यवहार परमाणु का मानना चाहिये। इसके अनुसार, इसकी साइज 10-15 से.मी. आती है। विभिन्न शास्त्रों में परमाणओं के चार प्रकार के गुणों का उल्लेख है - 1. परमाणु की गतिशीलता 2. परमाणु की अविनाशिता 3. परमाणुओं में बंधनगुण 4. परमाणुओं के भेद - प्रभेद
भगवती,' स्थानांग 8 तथा अन्य ग्रंथों में परमाणु की स्वाभाविक या प्रयोगज गतिशीलता का अच्छा विवरण मिलता है। वहां तो इनकी न्यूनतम (प्रदेश/समय) और उच्चतम (लोकांत प्रति समय = 10 27 -47 सेमी./ समय) गति का भी विवरण है। हां, सामान्य अवस्था की गति का विवरण वहां अनुपलब्ध है। यह गतिशीलता सामान्यत: स्थितिस्थापी और विशेष परिस्थितियों (धर्म द्रव्य का अभाव, उच्चतम वेग और बंधक परमाणुओं की उपस्थिति) में बंधनकारी भी होती है। भगवती में परिस्थितियों के आधार पर परमाणुओं की सात प्रकार की गति का उल्लेख है।
मूल परमाणु की अविनाशिता प्राय: सभी दर्शनों ने मानी है। तथापि जैन दर्शन का मत है कि द्रव्यत्व की दृष्टि से यह अविनाशी है, पर पर्यायत्व की दृष्टि से यह निरंतर परिवर्तनशील है। यह आधुनिक विज्ञान के 'अविनाशिता (द्रव्यमान - ऊर्जा) नियम' का पूर्वरूप ही है। इस परिवर्तनशीलता में इसकी संकोच - विस्तारशीलता भी समाहित है। यह गुण अन्य दर्शनों में नहीं माना जाता।
शास्त्रों में परमाणुओं में बंधन - गुण माना है। इसका कारण उनमें विद्यमान स्निग्ध - रूक्षता के विरोधी गुणों की उपस्थिति है। कुन्दकुन्द और उमास्वामी' ने इन गुणों को स्थूल रूप से ही लिया लगता है परन्तु पूज्यपाद ने इसे विद्युत - मूलक मानकर बंधकता की व्याख्या को नया आयाम दिया। भगवती के युग में बंधकता का कारण परमाणुओं में विद्यमान विशेष प्रकार के चिपकावक की उपस्थिति मानी गई थी पर इसे स्निग्ध- रूक्ष गुणकता का पूर्ववर्ती रूप ही मानना चाहिये। षट्खंडागम'' तथा उत्तरवर्ती आचार्यों ने परमाणु - बंधन आधारभूत नियम दिये हैं जो उत्तरवर्ती आचार्य भी मानते हैं - 1. परमाणुओं में बंधन, विरोधी वैद्युत गुणों के कारण होता है। उमास्वामी ने 'स्निग्ध - रूक्षत्वात्
बंध' कहकर इसका निर्देश किया है। यहां एक वचन होने से केवल विरोधी- गुणी बंध ही विवक्षित है। कुछ वैज्ञानिक इसे बहवचनी सूत्र मानकर इससे तीन कोटि के बंध मानते लगते हैं। यह मूलसूत्र के अभिप्राय का विपरिणमन लगता है।
अर्हत् वचन, जुलाई 99