Book Title: Arhat Vachan 1999 07
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 27
________________ के अन्तर्गत ही है, अत: जीव की पर्याय जीव है और अजीव की पर्याय अजीव है। इस प्रकार नैश्चयिक काल जीव भी है और अजीव भी है। अत: इस परंपरा में नैश्चयिक काल को नित्य कालाण के रूप में ध्रौव्य स्वरूप द्रव्य स्वीकार नहीं किया गया है। दिगम्बर परंपरा में काल दिगम्बर परंपरा में भी काल के निश्चयकाल और व्यवहार काल ऐसे दो भेद किये गये हैं। सर्वार्थसिद्धि में लिखा है - 'कालो हि द्विविध: परमार्थकालो व्यवहारकालश्च' अर्थात् काल दो प्रकार का है व्यवहार काल और परमार्थ काल। व्यवहार काल द्रव्य संग्रह में आया है - 'द्रव्वपरिवदृरूवो जो सो कालो हवेइ ववहारो' अर्थात् जो द्रव्यों के परिवर्तन में सहायक, परिणामादि लक्षण वाला है, वह व्यवहार काल है। इसी की टीका में स्पष्ट किया गया है - पर्यायस्य सम्बन्धिनी याऽसो समयघटिकादिरूपास्थिति: सा व्यवहारकाल संज्ञा भवति, न च पर्याय इत्यभिप्राय:। अर्थात् - द्रव्य की पर्याय से संबंध रखनेवाली यह समय घड़ी आदि रूप जो स्थिति है वह स्थिति ही व्यवहार काल है वह पर्याय व्यवहार काल नहीं है। काल द्रव्य की समय, पल, घड़ी, दिवस, वर्ष आदि पर्यायों को व्यवहार काल कहा जाता है। पंचास्तिकाय ग्रंथ में लिखा है - समय, निमेष, काष्ठा, कला, घड़ी, अहोरात्र, मास, ऋतु, अयन और वर्ष - ऐसा जो काल (व्यवहार काल) वह पराश्रित है।' अब यहां प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि व्यवहार काल को पराश्रित क्यों कहते हैं? पंचास्तिकाय समझाया गया है कि पर की अपेक्षा बिना. अर्थात, परमाण, आंख, सर्य आदि पर पदार्थों की अपेक्षा बिना व्यवहार काल का माप निश्चित करना अवश्यंभावी होने से उसे पराश्रित कहा गया है। यद्यपि वर्तमान व्यवहार में सेकेण्ड से वर्ष, मास, पक्ष, दिन घंटा, मिनट, सेकेण्ड तक ही काल का व्यवहार प्रचलित है परन्तु आगम में उसकी जघन्य सीमा 'समय' है। 'समय' काल की सूक्ष्म पर्याय है। जघन्य गति से एक परमाणु सटे हुए द्वितीय परमाणु तक जितने काल में जाता है उसे 'समय' कहते हैं। नैश्चयिक काल 'पंचानांवर्तना हेतुः काल:.10 अर्थात् पांचों द्रव्यों को वर्तना का निमित्त वह काल है। यह काल ही नैश्चयिककाल कहलाता है इसका मुख्य उपकार है 'वर्तना'। वास्तव में तो अपनी - अपनी अवस्था रूप स्वयं परिणमित होने वाले जीवादि द्रव्यों के परिणमन में जो निमित्त हो उसे कालद्रव्य कहते हैं, जैसे कुम्हार के चाक को घूमने में लोहे की कीली। सर्वद्रव्य अपने - अपने उपादान कारण से अपनी - अपनी पर्याय के उत्पाद रूप वर्तते 95 अर्हत् वचन, जुलाई 99

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