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(३) प्रारब्ध-पुरुषार्थ
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आप्तवाणी-४
पुरुष' अलख का लक्ष्य बैठाए, पुरुष हो जाए, फिर पुरुषार्थ कर सकता है।
लोग कमर कसकर पुरुषार्थ करने जाते हैं कि मुंबई में ऐसे करना है और वैसे करना है ! मुंबई तो वही की वही रही है, कितने ही सेठ यों ही मर गए! मुंबई की आबादी है, तब तक कोई कुछ करनेवाला नहीं है। क्योंकि आबादी को रोकने की सत्ता नहीं है और बरबादी को भी रोकने की सत्ता नहीं है। और उसमें लोग पुरुषार्थ करने निकले हैं। तू तो इन सब बर्तनों में सिर्फ एक चमचा है।
पुरुषार्थ, वह भ्रांत भाषा का शब्द है, यह सच्ची भाषा का शब्द नहीं है। जैसे कि आप कहते हो, 'मैं उनका समधी होता हूँ', वह सच्चा शब्द नहीं है। वैसे ही यह भाषा अलग है।
जीवों का ऊर्ध्वगमन किस तरह? प्रश्नकर्ता : जीव कौन-से पुरुषार्थ से ऊपर आया है?
दादाश्री : वह आपको समझाऊँ। ये हमारे यहाँ नर्मदा नदी है, वह पत्थर की कगार में भी बहती है और मिट्टी की कगार में भी बहती है। जहाँ पत्थर की कगार हो वहाँ पानी बहुत ज़ोर से बहता है और पत्थरों की धार भी तोड़ देता है। फिर नदी में कोई इतना बड़ा पत्थर गिरता है, कोई इतना बड़ा पत्थर गिरता है। उस समय के पत्थरों का कोना यदि लगे न तो खून निकले वैसा होता है। क्योंकि ताजा टूटकर गिरे हुए पत्थर धारवाले होते हैं। इन जीवों का पुरुषार्थ क्या है, वह मैं आपको समझाऊँ। इस नदी का स्वभाव कैसा है कि वह पत्थरों को बहाव में ऐसे खींचकरवैसे खींचकर ले जाती है। ऐसे चलता ही रहता है। वे पत्थर फिर अंदर ही अंदर टकराते रहते हैं, टकराते रहते हैं। इसलिए दस-पंद्रह मील जाएँ तब मुलायम लगते हैं, चिकने लगते हैं, घिसकर तैयार किए हों वैसे मार्बल जैसे लगते हैं। पर फिर भी वे टेढ़े-मेढ़े होते हैं। फिर यहाँ मुहाने तक आते-आते ऐसे गोल हो जाते हैं कि उन्हें वहाँ पर यात्रा में क्या कहते हैं? 'भाई, दर्शन करने के लिए घर पर शालिग्राम लेते आना।' वे गोल हो चुके पत्थर होते हैं, उनके लोग दर्शन करते हैं। उसी तरह से ये जीव-मात्र घिसते ही रहते
हैं। कुदरत घसीटती है और टकराता है, टकराते-टकराते गोल हो जाता है!
प्रश्नकर्ता : तो फिर कुछ भी नहीं करना है?
दादाश्री : कुछ भी नहीं करना है। वह लट्ट क्या करता है फिर? संडास जाने की सत्ता नहीं, वहाँ वह क्या करे? जो पत्थर टकराते-टकराते गोल हो जाते हैं, तब लोग उसे शालिग्राम कहकर मंदिर में रखते हैं। जितने शालिग्राम हो चुके उतने पूजा में बैठे और दूसरे समुद्र में गए! तो वैसा यहाँ पर हिन्दुस्तान में जन्म लेने के बाद पत्थर गोल हो चुका होता है और यदि 'ज्ञानी पुरुष' मिल गए और समकित हो गया तो वे पूजे गए और बाकी सब गए समुद्र में! समकित हुए बिना कोई पुरुषार्थ नहीं है। समकित होने तक सारी ही अकाम निर्जरा (नए कर्म का बंधन होकर पुराने कर्म का अस्त होना) है। ये लोग मानते हैं, वह पुरुषार्थ तो भ्रांति का है। भ्रांति का पुरुषार्थ अर्थात् फिर से जन्म लेना पड़े, वैसा।
यह आपको जो मार्ग बताया कि कहाँ से पत्थर गिरते हैं, वह व्यवहार की आदि है। अव्यवहार की आदि ही नहीं, वह तो अनादि है। परन्तु व्यवहार की आदि यहाँ से होती है। पत्थर नदी में गिरे तब से। अव्यवहार राशि यानी जहाँ अभी तक जीव का नाम भी नहीं पड़ा है, वह। और जहाँ से नाम पड़ा कि यह गुलाब, यह मोगरा, ये चींटी, मकोड़े... वे सब जीव व्यवहार राशि में आए। कुदरती रूप से धक्के खा-खाकर आगे आते हैं। ठेठ अनाज की बाली आने तक कुदरती संचालन है।
प्रश्नकर्ता : उसका कोई कारण है क्या. कि कोई पत्थर दरिया में गिरा और कोई पत्थर शालिग्राम हुआ?
दादाश्री : कारण कुछ भी नहीं, जिसे जो संयोग मिले वे! यह 'दादा' का संयोग मिला तो देखो न, आप परमानंद में रहते हो न! यह संयोग मिला उतना ही। फिर आपको दूसरा कुछ करना पड़ा है? क्या चरखा चलाना पड़ा? नहीं तो इस व्यवहार का अंत कब आए?
ये पत्थर ऐसे नदी में जाएँ तब एक सरीखे होते हैं, वैसे छोटे-मोटे जरूर होते हैं, पर उन्हें अलग-अलग तरह से घिसता कौन है? तब कहें,