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(३) प्रारब्ध-पुरुषार्थ
ध्यान मुड़ गया। तो वह मेरा पुरुषार्थ मानूँ या भाग्योदय मानूँ ?
दादाश्री : वह आपके पुण्य का उदय कहलाएगा। भाग्य का उदय आपको यहाँ लेकर आया। फिर हमने आपको ज्ञान दिया। यानी आप पुरुष हुए और पुरुष होने के बाद पुरुषार्थ शुरू हुआ। जब तक 'मैं कर रहा हूँ', तब तक पुरुषार्थ नहीं कहलाता। आत्मा का ज्ञान हुआ यानी आत्मा 'देखनाजानना' सीख गया। 'हम' 'ज्ञाता' और 'चंदूलाल ' 'ज्ञेय', इतना जान लिया, तब से पुरुषार्थ शुरू हुआ !
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आत्मा और प्रकृति दो ही हैं। प्रकृति पूरी प्रारब्धाधीन है। ये क्रियाएँ होने से भाव अपने आप कुदरती प्रकार से उत्पन्न होते हैं। ये भाव तो आनेवाले भव का पुरुषार्थ हैं। पर उसकी लोगों को खबर नहीं है कि इसे भ्रांत पुरुषार्थ कहा जाता है! अगले भव का जो चार्ज करता है वह भ्रांत पुरुषार्थ और दूसरा सब प्रारब्ध है। भाव तो होते ही हैं न? विवाह करना है, वह भाव तो करना पड़ता है न? पूर्वभव के भाव से अभी हमें इच्छाएँ होती हैं, अर्थात् भाव चार्ज किया था इसलिए यह आया। यानी भाव को पुरुषार्थ कहा और द्रव्य को प्रारब्ध कहा जाता है। परन्तु लोग तो उनकी भाषा में द्रव्य को ही पुरुषार्थ कहते हैं और वह भावपुरुषार्थ तो समझ में ही नहीं आता।
यहाँ अक्रम मार्ग में द्रव्य और भाव दोनों को डिस्चार्ज स्वरूप में रख दिया है। क्रमिक मार्ग भाव के अधीन है। अक्रम मार्ग में तो हम स्वभाव में आ गए, इसलिए बाक़ी सब परभाव हैं। हमने भाव को एक ओर रख दिया और द्रव्य का समभाव से निकाल करने को कहा है।
प्रश्नकर्ता: जब तक खुद को जाने नहीं, तब तक पुरुषार्थ किया कहा ही नहीं जाएगा?
दादाश्री : खरा पुरुषार्थ हुआ नहीं कहा जाएगा, पर भ्रांति का पुरुषार्थ तो होगा। यदि मन-वचन-काया की एकात्मवृत्ति हो, तब भ्रांति के पुरुषार्थ में से बीज पड़ता है। वह व्यवहार पुरुषार्थ कहलाता है। मन में जैसा हो, वैसा वाणी में बोले और वैसा ही वर्तन में रखे और शुभ में पड़े तो व्यवहार
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आप्तवाणी-४
पुरुषार्थ से फायदा होता है। और ऐसे करते-करते 'रियल' के लिए योग मिल जाता है। इसलिए शुभ की प्रशंसा की गई है। यह भ्रांत पुरुषार्थ एक प्रकार का पुरुषार्थ ही कहलाता है। इसे भ्रांत पुरुषार्थ किसलिए कहा जाता है, वह आपको समझाऊँ। क्रमिक मार्ग ऐसा है कि यदि उसे कहें कि तू जप करने बैठ जा, तो वह जप करने बैठता है। वह जाप प्रारब्ध से होता है, पर उस समय भीतर जो भाव करता है, उससे वापिस अगले जन्म का बीज डलता है, वह पुरुषार्थ कहलाता है। इसलिए प्रारब्ध भोगते समय भीतर पुरुषार्थ उत्पन्न होता है। प्रारब्ध भोगते समय भीतर पुरुषार्थ का बीज डलता है। क्योंकि 'मैं कर्ता हूँ' यह भान है इसलिए। नहीं तो प्रारब्ध भोगते हुए बीज नहीं डलें और मोक्ष में जाए। परन्तु कर्त्ताभाव है, इसलिए प्रारब्ध पर, क्रियाओं पर बहुत ज़ोर देते थे। क्योंकि उनके साथ पुरुषार्थ अपने आप होता ही रहता है।
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आज तो वह क्रमिक मार्ग फ्रेक्चर हो गया है। जप करने बैठा हो तो जप करता जाता है और मन में भाव करता जाता है कि, 'मेरे फादर नालायक हैं, मेरे फादर नालायक हैं... मुझे परेशान करते हैं। मेरा तेल निकाल देते हैं।' इसलिए मन में अलग, वाणी में अलग और वर्तन में अलग ही प्रकार का होता है। नहीं तो अभी तक क्रमिक मार्ग कैसा था कि प्रारब्ध भोगते हुए पुरुषार्थ करो और अक्रम मार्ग यानी क्या? सीधा 'डायरेक्ट' पुरुषार्थ । 'ज्ञानी पुरुष' की कृपा से पुरुष होकर पुरुषार्थ उत्पन्न हो जाता है। संपूर्ण जागृति में आ जाता है, एकदम उजाला हो जाता है ! फिर एक सेकन्ड भी आपका 'स्वरूप' नहीं भूलते हो आप !
प्रारब्ध, किस तरह उदय में आता है?
प्रश्नकर्ता पर पुरुषार्थ करें, तभी प्रारब्ध आएगा न?
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दादाश्री : वह पुरुषार्थ नहीं है। वह नैमित्तिक प्रयत्न है। नैमित्तिक प्रयत्न आप करते जाओ।
प्रश्नकर्ता: वह प्रारब्ध का ही नैमित्तिक कर्म है?
दादाश्री : वह प्रारब्ध के आधार पर ही होनेवाला है। प्रारब्ध की