Book Title: Aptavani 04
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 109
________________ (२०) गुरु और ज्ञानी १६२ आप्तवाणी-४ बारे में उल्टा बोलते हैं। वे पड़ोसी को ऐसा कहते हैं कि 'मेरे पापा, मम्मी से लड़ रहे थे, नालायक हैं!' तब फिर उस लड़के को पड़ोसी उकसाते हैं। खुद अपने ही घर की बात बाहर निकाल देता है! यानी सिन्सियारिटी रही ही नहीं इस काल में। 'ज्ञानी पुरुष' का सिद्धांत कैसा! जिन्हें पूज्य माना हो फिर वे चाहे जितना खराब करें, परन्तु त तेरी दृष्टि मत बदलना। मेरा तो पहले से ही सिद्धांत है कि मैंने जिस पौधे को पानी पिलाकर बड़ा किया हो तो वहाँ से मुझे रेल्वे लाइन भी ले जानी हो तो उसके पास से मोड़कर ले जाऊँ, परन्तु मेरा उगाया हुआ पौधा नहीं उखा.! सिद्धांत होना चाहिए। एकबार स्थापित करने के बाद फिर खंडन कभी भी नहीं करते। खंडन की बात तो कहाँ रही, परन्तु आप मिले हो तब से आपके लिए जो अभिप्राय बनाया है, एक सेकन्ड के लिए भी मेरा वह अभिप्राय बदलता नहीं! आज मैं नक्की करूँ कि यह मनुष्य अच्छा है, फिर उस आदमी ने मेरी जेब में से पैसे ले लिए हों, कोई इस बात को सिद्ध कर देता हो कि मैंने खुद उसे चोरी करते हुए देखा है, फिर भी मैं कहूँ कि यह चोर नहीं है। क्योंकि हमारी समझ अलग है। वह व्यक्ति हमेशा के लिए कैसा है, वैसा हमने देख लिया है, फिर संयोगवश वह व्यक्ति चाहे जो करे, उसकी हम नोंध (अत्यंत राग अथवा द्वेष सहित लम्बे समय तक याद रखना, नोट करना) नहीं करते। पूरा जगत् संयोगवश की नोंध करता है। मूलतः पूर्वविराधक जीव हैं इसलिए विराधना का उन्हें विचार आता ही है। उसमें हम उनका दोष नहीं मानते। हम क्या कहते हैं कि विराधना का विचार तो आपको आएगा ही, परन्तु विराधना में हमें एकाकार नहीं हो जाना चाहिए, उस रूप नहीं हो जाना चाहिए। अच्छे रहते हैं या फिर उल्टे रास्ते ले जानेवाले संयोग नहीं मिले इसलिए अच्छे रहे हैं! हम सबका ध्येय 'शुद्धात्मा' और मोक्ष, ताकि दूसरा कुछ छुए ही नहीं। पर-परिणति छुए ही नहीं। अभी आप पूरा दिन पर-परिणति में रहते हो और मोक्ष ढूंढ रहे हो? मोक्ष में जाना हो तो वही एक ध्येय चाहिए। धर्म का मर्म धर्म तो बाहर भी है। इतने सारे लोग धर्म में जाते हैं, मंदिर में जाते हैं, उपाश्रय में जाते हैं, वहाँ सब जगह धर्म है, परन्तु मर्म नहीं रहा, वहाँ मर्म जैसा कुछ भी नहीं मिलता। इतना बड़ा हाफूज़ का आम हो, परन्तु काटें तब अंदर गुठली और छिलके दो ही निकलें, तब उसमें क्या मर्म रहा? वैसा धर्म रह गया है, परन्तु धर्म का मर्म नहीं रहा। धर्म अर्थात् सच्ची वस्तु की खोज आरोपित भाव से करनी, वह। और 'यह' तो 'साइन्स' है! धर्म तो वह कि आध्यात्मिक के साधन मिलवा दे। ....वैसा भान, वह भी बड़ी जागृति गुरु की ही विराधना यानि कि जिसके द्वारा कुछ प्राप्त किया था, एक आना या दो आना, उसकी खुद विराधना करे अर्थात् जिससे स्थापन होनेवाला था उसका ही खंडन करे, वे पूर्वविराधक जीव। इस काल में पूर्वविराधक जीव हैं, मैं भी उनमें से था। मुझे यह ज्ञान हआ था, वह 'मैं पूर्वविराधक हूँ' वैसा भान होने के बाद यह ज्ञान हुआ था। ___गुरु को पहचानना..... प्रश्नकर्ता : नासमझी में गुरु को पहचाने बिना गुरु बना लेने के बाद समझ में आया कि ये गुरु ठीक नहीं हैं, तो क्या करें? दादाश्री : गुरु को पहचानना नहीं होता है, गुरु के प्रति तो हमें भाव होता है, इसलिए उन्हें गुरु बना देते हैं। गुरु को पहचानना तो किसीको आता ही नहीं। वैसी जौहरीपन ही कहाँ है? ये तो काँच ले आएँ वैसे लोग हैं। इन्हें हीरे की परख है, परन्तु मनुष्य की परख कहाँ से लाएँ? यह क्या हर एक भूल मिटाने के बाद ही मोक्ष में जाया जा सकेगा। भूल मिटाए बगैर मोक्ष में नहीं जाया जा सकेगा। चाहे जैसे संयोग मिलें फिर भी स्थिरता नहीं टूटे, ध्येय नहीं बदले, उसे धर्म प्राप्त किया कहा जाएगा। यह तो लोग आबरू रखने के लिए

Loading...

Page Navigation
1 ... 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191