Book Title: Aptavani 04
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 173
________________ २९० आप्तवाणी-४ (३७) क्रियाशक्ति : भावशक्ति २८९ प्रश्नकर्ता : यानी जो कुछ भी हमें मिलता है, वह पहले अंदर सूक्ष्म में पड़ा हुआ ही है, इसलिए मिलता है? दादाश्री : तब और कौन देनेवाला है? आपको इतनी सब्जी परोसी हो तो दो टुकड़े नहीं बचे रह जाते हैं थाली में? उसका क्या कारण है? अरे, एक दाना भी बचा पड़ा रहता है या नहीं बचा पड़ा रहता? भीतर जितना हिसाब होगा उतना ही खाया जाएगा। दूसरा सब पराया! हम अच्छे भाव करें उसके अच्छे फल आते हैं और खराब भाव के खराब फल आते हैं। और भावाभाव नहीं किए और 'मैं शुद्धात्मा हूँ' हो गया, तब कर्ता बंद हो गया। तो पुराना फल देकर चला जाएगा, नया नहीं आएगा। यह साइन्स है, धर्म नहीं है। धर्म तो जब तक साइन्स में नहीं आएँ, तब तक योग्यता लाने के लिए है। वर्ना साइन्स तो साइन्स है, ठेठ मुक्ति दिलवाता है, वह ! द्रव्य-भाव प्रश्नकर्ता : भाव उच्च है या द्रव्य? दादाश्री : भाव को भगवान ने श्रेष्ठ कहा है। द्रव्य उल्टा भी हो सकता है। उसे नहीं देखा जाता, भाव ही देखना है। द्रव्य-भाव को समझना बहुत मुश्किल है। यह जो लटू घूमता है, उसकी डोरी खुलती जाती है वह द्रव्य है और फिर लिपटती है वह भाव दादाश्री : प्रतिष्ठित आत्मा करे, तब भावमन की शुरूआत होती है और उसमें से द्रव्यमन रूपक में आता है। लोग जो भावाभाव करते हैं वे 'प्रतिष्ठित आत्मा' के हैं। शुद्धात्मा को भाव होते ही नहीं हैं। जो दिखता है, वह डिस्चार्ज है। चार्ज तो दिखता ही नहीं, पता भी नहीं चलता। भाव ढूंढने से मिलें, वैसे नहीं हैं। बहुत थोड़े लोग भाव को समझ सकते हैं। परन्तु वे फिर, शुद्धात्मा के भाव समझते हैं, इसलिए गड़बड़ कर देते हैं। ज्ञान के बिना भाव पकड़ में आ सकें, वैसा नहीं है। भाव तो अत्यंत गहन, गहन, गहन - वैसा लाख बार गहन बोलें, तब भी उसकी गहनता का अंत आए वैसा नहीं है। कोई कहे कि, मैंने यह कार्य करने के लिए बहुत भाव किए हैं। उसे भगवान क्या कहते हैं? वे मन के दृढ़ परिणाम हैं। उन्हें भाव नहीं कहते। प्रश्नकर्ता : द्रव्यभाव अर्थात् क्या? दादाश्री: जो खुद धर्म करते हैं उनके बीज डलते हैं। इसलिए गणधरों ने कहा है कि द्रव्यभाव करो। परन्तु इस काल में द्रव्य अलग और भाव भी अलग होते हैं। व्याख्यान सुनने बैठा हो, वह द्रव्य बहुत पुण्यशाली कहलाता है, परन्तु वहाँ बैठे हुए तरह-तरह के भाव कर डालता है कि ऐसे फायदा करूँ और ऐसा करूँ। पहले के काल में द्रव्यभाव सच्चा था, जैसा द्रव्य वैसे भाव। किसीको पट्टा बाँधे तो उसमें एकाकार हो जाता था। यानी इसे द्रव्यभाव डाला कहा जाता है। परन्तु आज के लोग तो पट्टा बाँधते हैं, पर मन में विचार करते हैं कि इसमें मैं कहाँ फँसा? द्रव्यभाव सहित वर्तन, वह सच्चा बीज डालता है। द्रव्यकर्म अर्थात् फल आया, वह । भावकर्म अर्थात् बीज डाला, वह। द्रव्य में से भाव और भाव में से द्रव्य, ऐसे चलता ही रहता है। चोरी करते समय अच्छा भाव रखे तो पुण्य का फल मिलता है। ऐसा भाव करे कि, 'मुझे कहाँ यह चोरी करनी पड़ी?' उससे पुण्य बंधता शुद्धात्मा में किसी प्रकार का भाव ही नहीं है। प्रतिष्ठित आत्मा के भाव को भाव कहा जाता है। प्रतिष्ठित आत्मा तो ज्ञानी को और अज्ञानी को भी होता है। स्वरूपज्ञान नहीं होता, उसे मन के दृढ़ परिणाम में होता है कि 'मुझे प्रतिक्रमण करना ही है' ऐसा दृढ़ भाव करे तब द्रव्य उत्पन्न होता है और द्रव्य में से भाव उत्पन्न होते हैं। प्रश्नकर्ता : भावमन और द्रव्यमन का मतलब क्या है?

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