Book Title: Aptavani 04
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 175
________________ (३७) क्रियाशक्ति : भावशक्ति २९३ २९४ आप्तवाणी-४ प्रतिभाव प्रश्नकर्ता : प्रतिभाव किसे कहते हैं? दादाश्री : आप कुछ गलत बोल गए और फिर अंदर आपको ऐसा हो कि 'यह गलत हो गया, ऐसा नहीं बोलना चाहिए', वह प्रतिभाव कहलाता है। जो आप बोलते हो, उसके लिए ही आप 'नहीं बोलना चाहिए', वैसा जो भाव करते हो, वह प्रतिभाव कहलाता है। प्रश्नकर्ता : अर्थात् जागृति ही प्रतिभाव है न? दादाश्री : भीतर जागृति हो, तो प्रतिभाव होता है। गोली छूट जाने के बाद मन में होता है कि 'नहीं छोड़नी चाहिए।' यह प्रतिभाव हमारा पुरुषार्थ माना जाता है। प्रश्नकर्ता : ज्ञानी को कैसे प्रतिभाव रहते हैं? दादाश्री : हमें प्रतिभाव नहीं होते हैं। प्रश्नकर्ता : यह गोली छूटने की घटना में ज्ञानी को कैसा रहता है? अंदर की परिणति कैसी रहती है? दादाश्री : भीतर कुदरती रूप से गोली छूटती ही नहीं, फिर भाव करने को ही कहाँ रहा? और छोटी-छोटी गोलियाँ छूटें उन्हें तो देखते रहते हैं कि 'ओहोहो! ये पटाखे फूट रहे हैं।' उसे भाव नहीं कहते। भीतर शरीर में तो बहुत तरह की गोलियाँ फूटती रहती हैं, उन्हें भाव नहीं कहते। प्रश्नकर्ता : डिस्चार्ज में तन्यमाकार हो जाए तो फिर दूसरे भाव डलते हैं न? दादाश्री : हाँ, यह सब जोखिम तो है न! प्रतिक्रमण करे तब शुद्ध हो जाता है। प्रतिक्रमण करे, वह भी परभाव है। उससे पुण्य बंधता है, वह स्वभाव नहीं है। पुण्य बंधता है, पाप बंधता है, वह सब परभाव है। जितना समभाव से निकाल हो गया, उतना कम हुआ। अर्थात् अज्ञानी को प्रतिभाव नहीं होते हैं। उसे जागृति ही नहीं होती न कि यह गलत हो रहा है। 'ज्ञानी' को भी प्रतिभाव नहीं होते. क्योंकि उन्हें भाव ही उत्पन्न नहीं होते, तो प्रतिभाव कहाँ से होंगे? वह संपूर्ण जागृति की निशानी है। और जिन्हें सम्यक्दर्शन हुआ है, ऐसे जागृत महात्माओं को प्रतिभाव होते हैं, उल्टे भाव हों कि तुरन्त जागृति उन्हें दिखाती है और उनके सामने प्रतिभाव उत्पन्न होता है। स्वभाव-स्वक्षेत्र : परभाव-परक्षेत्र प्रश्नकर्ता : जब देखो तब आप ऐसे के ऐसे ही लगते हैं। फर्क नहीं लगता, वह क्या है? दादाश्री : यह कोई फूल है जो मुरझा जाए? ये तो अंदर परमात्मा प्रकट होकर बैठे हैं! नहीं तो जर्जरित दिखेंगे! जहाँ परभाव का क्षय हो गया है, निरंतर स्वभाव जागृति रहती है, परभाव के प्रति जिन्हें किंचित् मात्र रुचि नहीं रही, एक अणु-परमाणु जितनी भी रुचि नहीं रही है, फिर उन्हें क्या चाहिए? परभाव के क्षय से और अधिक आनंद अनुभव होता है। और आप उस क्षय की ओर दृष्टि रखना। जितना परभाव क्षय हुआ उतना स्वभाव में स्थित हुआ। बस, इतना ही समझने जैसा है, दूसरा कुछ करने जैसा नहीं है। जब तक परभाव है, तब तक परक्षेत्र है। परभाव गया कि स्वक्षेत्र में थोड़े समय रहकर फिर सिद्धक्षेत्र में स्थिति हो जाती है। स्वक्षेत्र, वह सिद्धक्षेत्र का दरवाजा है! ܀܀܀ ܀܀

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