Book Title: Aptavani 04
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 172
________________ (३७) क्रियाशक्ति भावशक्ति २८७ ज्ञानात्मा है। भावात्मा के पास सिर्फ भावसत्ता ही रही, उसका ही वह उपयोग करता है। दूसरा कुछ नहीं करता है। किए हुए भाव नेचर में जाते हैं। फिर कुदरत पुद्गल मिश्रित होकर उसका फल देती है। यह बहुत गूढ़ साइन्स है। आप एक खराब विचार करो कि तुरन्त ही ये बाहर के जो परमाणु हैं, वे भीतर के परमाणुओं के साथ हिसाब मिलाकर - जोइन्ट होकर अंदर दाख़िल हो जाते हैं। और वह हिसाब बैठ जाता है और वैसा ही फल देकर जाता है, फिर ऐसे ही नहीं चला जाता। इसमें आत्मा कुछ भी नहीं करता है। और बाहर ऐसा कोई ईश्वर नहीं है कि आपको फल देने के लिए आए। यह 'व्यवस्थित' शक्ति ही सबकुछ चला लेती है आपका। इसमें आत्मा कुछ भी नहीं करता है, आत्मा खाता नहीं है, पीता नहीं है, भोग नहीं भोगता है, सिर्फ भाव का कर्त्ता है। आत्मा स्वभाव का कर्त्ता बने तो हर्ज नहीं है। यह तो विभाव का कर्त्ता है, इसलिए संसार खड़ा हो गया है । स्वभाव के कर्त्ता होने से मोक्ष होता है। : सौ रानियाँ हों, परन्तु राजा को भीतर भाव उत्पन्न होने लगे कि मुझे तो ब्रह्मचर्य का ही भाव रखना चाहिए, यह अब्रह्मचर्य नहीं होना चाहिए, तो ऐसा सोचते-सोचते भाव स्वरूप हो जाए, तो अगले जन्म में कितना सुंदर ब्रह्मचर्य रहेगा! ब्रह्मचर्य का पालन करना खुद के हाथ में नहीं है। भाव किया है, उसका फल आएगा। तीर्थंकरों को ज्ञान होने के बाद अंतिम भाव उत्पन्न होता है, जगत् कल्याण करने का। खुद का कल्याण हो चुका, अब दूसरों का किस तरह कल्याण हो, वैसे भाव उत्पन्न होते हैं। भाव के फल स्वरूप भावात्मा वैसा ही हो जाता है। पहले भावात्मा तीर्थंकर बनता है, फिर द्रव्यात्मा तीर्थंकर बनता है। वह भी निर्विकल्प का फल नहीं है, विकल्प का फल है, भाव का फल है। प्रश्नकर्ता: आपके जैसे योगी पुरुष हों, वे ये सारी सूक्ष्म परमाणुओं की क्रियाएँ देख सकते हैं? दादाश्री : देख सकते हैं, तभी तो यह पज़ल सोल्व हो सकता है। आप्तवाणी-४ २८८ नहीं तो यह पज़ल किसी भी तरह से सोल्व नहीं हो सकता। लोग कहेंगे कि इसने इसे पोइजन दिया इसलिए यह आदमी मर गया, यह करेक्ट बात नहीं है। पहले अंत:करण में पोइजन दे दिया जाता है। यह सूक्ष्म स्वरूपवाला पोइजन है और वह स्थूल स्वरूपवाला पोइजन है। पहले अंदर क्रिया होती है और फिर बाहर होती है। यह भोजन हम खाते हैं वह हम रोज़ ऐसा नहीं कहते हैं कि यही खाना बनाना और कहें तो उस अनुसार सबकुछ बनता भी नहीं है। यह तो भीतर जिन परमाणुओं को माँगते हैं, तो बाहर 'व्यवस्थित' शक्ति उन्हें मिलवा देती है। यह सारा 'व्यवस्थित' के अनुसार ही प्रबंधित होता है। भीतर कड़वे रस की ज़रूरत पड़ी हो, तभी करेले की सब्ज़ी मिलती है। तब ये अभागे चिल्लाते हैं कि, 'आज करेले की सब्ज़ी क्यों बनाई?' यह भी विज्ञान है। हमने कहा है, 'माइन्ड इज इफेक्टिव स्पीच इज इफेक्टिव, बोडी इज़ इफेक्टिव' (मन असरवाला है, वाणी असरवाली है, शरीर असरवाला है) अब ये इफेक्टिव किस तरह से बनता है? उस पर तो बहुत-बहुत विचार आने चाहिए। हमें दुःख होता है वह मन के परमाणुओं का इफेक्ट है, उसमें किसीका दोष नहीं है। मात्र इफेक्ट है। बाहर से कोई दुःख नहीं देता है। बाहरवाले तो सारे निमित्त हैं। पहले अंतर में होता है, तभी बाहर होता है। इसलिए हम अंतर पर से समझ जाते हैं कि थोड़ी देर बाद ऐसा होनेवाला है। हमें वैसा दिखता है । इतना तो आपको समझ में आता है न कि यह ज़हर खाने से आदमी मर जाता है, उसमें बीच में भगवान की ज़रूरत नहीं है। भगवान को मारने के लिए आना नहीं पड़ता है। ये परमाणु मारते हैं। वास्तव में मारनेवाले भीतर ही हैं। स्थूल में नहीं दिखें तो जगत् चले ही नहीं! यह जो भ्रांति है, वह स्थूल के कारण ही है सारी ! स्थूल जहर को तो अच्छे डॉक्टर उल्टी करवाकर निकलवा देते हैं, परन्तु सूक्ष्म में यदि हो तो चाहे जितनी उल्टी करवाएँ, फिर भी मर जाता है। यह विज्ञान बहुत जानने जैसा है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191