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(२१) तपश्चर्या का हेतु
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आप्तवाणी-४
पता चल जाता है कि अभी राशन के लिए गए हैं, चावल लाएँगे, चीनी लाएँगे। देखो पुण्यशाली (!) लोग ये! अरे! बड़े बारह-बारह मंजिल के मकान बनाए फिर भी उनके पुण्य कितने कच्चे पड़ जाते हैं?
'ज्ञानी' को त्यागात्याग? वीतराग मार्ग के मनुष्य का जीवन उपयोगमय होना चाहिए। वह उपयोग कैसा होता है कि अशुभ होता हो उसमें से शुभ को ग्रहण करते
हैं।
करना पड़े वह सब शौक़ कहलाता है।
प्रश्नकर्ता : जप-तप से कर्म बंधते हैं?
दादाश्री : उससे कर्म ही बंधते हैं न! हर एक चीज़ से कर्म ही बंधते हैं। रात को सो जाओ तो भी कर्म बंधते हैं। और जप-तप करते हैं उससे तो बहुत कर्म बंधते हैं। परन्तु वे पुण्य के कर्म बंधते हैं, उससे अगले जन्म में भौतिक सुख मिलते हैं।
यह पूरा वीतराग मार्ग लाभालाभ का मार्ग है। धर्म में पाँच आना भी जाने मत देना। उपवास करे तो कहता फिरता है कि, 'दो उपवास हैं और तीन उपवास हैं।' और बेटा आए उसके साथ कलह करता है, 'क्यों आज सुबह दुकान में नहीं गया?' अरे, दुकान का तुझे क्या करना है? तू अपना उपवास कर न। बेटा कहेगा कि, 'ज़रा आज मुझसे जाया नहीं जा सका।' तो पिता कलह करता है। इस तरफ माँजी इस रूम में उपवास में बैठी हों और दूसरे रूम में प्याले बजने लगें तो 'यह क्या हुआ? क्या फूटा?' करती हैं। माँजी, आपका आत्मा फूट गया! एक प्याला फूटा तो वहाँ पर चित्त चला जाता है। ये सब निरा नुकसान ही उठाते हैं।
प्राप्त तप ऐसा है, इस काल में जीवों को जान-बूझकर तप नहीं करने हैं और अनजाने में जो तप आ जाएँ, अपने आप आ पडें, तो वैसे तप करने को कहा है। क्योंकि इस दूधमकाल में एक तो मनुष्य मूलतः तपा हुआ ही होता है, फिर घर में हो, बेडरूम में हो या उपाश्रय में हो। पर होता है तपा हुआ ही। तपे हुए को तपाकर क्या काम है? सिर कटवाकर पगड़ी पहनने जैसी बात है यह। प्याला फूटे तब तप करना है। बेटा दुकान पर नहीं गया, तब तप करना है। प्रतिकूलता में जब हमारी प्रकृति उछले तब भीतर घमासान मच जाता है, उस समय तप करना है। इस काल में आ चुके तप करने हैं। सत्युग में तो सेठ को परी ज़िन्दगीभर पता भी नहीं चलता था कि 'घर में चावल कहाँ से आते हैं और कितने के आते हैं?' अपने आप आया ही करता था! और आज तो घर के सारे ही लोगों को
प्रश्नकर्ता : 'ज्ञानी' को 'त्यागात्याग' संभव नहीं होता, वह समझाइए।
दादाश्री : यानी क्या कि ये यहाँ पर भोजन की थाली आई हो और उसमें कढ़ी खारी आई तो 'ज्ञानी' उसका निबटारा कर देते हैं। और कढ़ी बहुत अच्छी आई, स्वादिष्ट आई तो भी उसका निबटारा कर देते हैं। वहाँ पर 'यह मैंने त्याग दिया है' ऐसा नहीं कहते। त्याग कहा अर्थात् तिरस्कार कहलाता है और अत्याग वह राग है। 'ज्ञानी' को राग या द्वेष कुछ भी नहीं होता, इसलिए 'ज्ञानी' को त्यागात्याग संभव नहीं होता, जो आया वह वीतराग भाव से स्वीकार कर लेते हैं और उसका निबटारा कर देते हैं। हमें तो निकाल करके हल लाना है।
भगवान ने, ये लोग जो त्याग करते हैं, उसे त्याग नहीं कहा है। भगवान ने वस्तु की मूर्छा के त्याग को त्याग कहा है। इन 'दादा' के पास चीजें सारी ही हैं। फलाना है, व्यापार है, उनके नाम से व्यापार चलता है, उनके नाम के चेक चलते हैं। 'दादा' ने कुछ भी त्याग नहीं दिया है। परन्तु नहीं, उन्हें मूर्छा किसी भी प्रकार की नहीं है, इसलिए उनका सर्वस्व त्याग है। और साधु महाराज कहते हैं न कि, 'मेरा जन्मस्थल इस गाँव में है', वैसा नहीं बोल सकते। त्यागी हैं फिर भी यह सारा अंदर भरा हुआ होता है, वह मूर्छा टूटी नहीं है। और हम जो कहते हैं उसमें कुछ भी त्याग करने जैसा नहीं है। किसका त्याग करने जैसा नहीं है? वस्तु का त्याग नहीं करना है, मूर्छा का त्याग करना है। मूर्छा किसे कहते हैं? मोहनीय