Book Title: Aptavani 04
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 166
________________ (३६) भाव, भाव्य और भावक २७५ २७६ आप्तवाणी-४ प्रश्नकर्ता : आत्मज्ञान नहीं हुआ, उससे पहले जो यह सब खड़ा हुआ, वह आशयों में से ही न? दादाश्री : उन आशयों से हमें लगता ज़रूर हैं कि जो आशय हैं उनका यह फल है। परन्तु वे आशय कर्ता नहीं हैं। हमें लगता जरूर है कि ये आशय हमारे होंगे इसलिए यह सब आया। जैसा आशय होता है, वैसा आता है। वह तो नियम है कि इस तरह की टिकिट ली यानी कलकत्ता पहुँचेंगे। आशय टिकिट लेने जैसा है। यह तो अहंकार से बोलते हैं कि मुझे ऐसे आशय उत्पन्न हुए इसलिए यह हुआ। संसार निरंतर प्रवहन कर रहा है। एक व्यक्ति ने भगवान से पूछा था कि, 'भगवान, ऐसा तो मैं क्या करूँ कि मेरा मोक्ष जल्दी हो जाए?' तब भगवान ने कहा, 'तेरी भवस्थिति अभी तक परिपक्व नहीं हुई है। मोक्ष के लिए अभी बहुत समय बाकी है तुझे।' इसलिए अठारहवें मील पर मोक्ष हो तो ग्यारहवें मीलवाला किस तरह मोक्ष में जाए? तू 'ज्ञानी पुरुष' के पास पड़ा रहेगा, तो भी तेरा कुछ नहीं होगा। परन्तु एक खास (मील की) बाउन्ड्री में आ गया और 'ज्ञानी पुरुष' मिल गए तो तेरा कल्याण हो जाएगा। भी नहीं चलता। अर्थात् यह सभी परमाणुओं का असर है। जैसे मील बदल जाएँ वैसे वे परमाणु बदल जाते हैं और मोक्षमार्ग में धीरे-धीरे उस प्रवाह में आगे बढ़ते ही रहते हैं। प्रश्नकर्ता : अंत में कोई भावक परमाणु ही नहीं रहता न? ज्ञानी में ये 'क' होते हैं? दादाश्री : हमारी दशा में भावक का परमाणु भी नहीं रहता। हम जिस जगह पर बैठे हैं, उस जगह पर आप आओगे तो आपके भी भावक नहीं रहेंगे, फिर कोई शोर मचानेवाला अंदर नहीं रहेगा, शुद्धात्मा के स्पष्ट वेदन में आए तो 'क' नहीं रहेंगे। यह 'साइन्स' मात्र समझना है। यह ज्ञान तो इटसेल्फ क्रियाकारी है। यह सूक्ष्म बात समझे तभी मोक्ष होगा। भावों में एकाकार नहीं हों तो मुक्ति भगवान ने तप किसे कहा है? लोग तपते हैं उसे भगवान ने तप नहीं कहा। यह तो लोक-तप, लौकिक तप कहलाता है। मोक्ष के लिए अलौकिक तप होता है। अंदर भावक सभी तरह के भाव करवाएँ, उस घड़ी तप ऐसा रखें कि जरा-सा भी 'खुद' का चूके नहीं। भगवान महावीर ने भी वही तप किया था। अंत तक तप में तपकर और ज्ञान से देखते ही रहे और 'खुद' असर से मुक्त रहे! प्रश्नकर्ता : वैसा असरमुक्त किस तरह से रहा जा सकता है? दादाश्री : अंदर सारे भावक हैं। खुद यदि भाव्य हो जाए तो भाव होता है और फँसता है। तू तो परमात्मा है, इसलिए भावों को जान। और भावों का तू ज्ञाता-दृष्टा रहा तो फँसेगा नहीं। यदि भावक नहीं हों, तो स्वयं परमात्मा ही है। ये भावक कौन हैं? पहले की गुनहगारी, वे भावक हैं। उससे बीज पड़े हैं। भावक और भाव्य एकाकार हो जाएँ तो योनि में बीज पड़ता है। और उससे संसार सर्जित हो जाता है। यदि भावक और भाव्य एकाकार नहीं हों, वहाँ खुद' स्ट्रोंग रहा और 'खुद' भाव्य नहीं बन जाए ये भाव करवाते हैं, वे अंदरवाले भावक हैं। यह साइन्स बहुत उच्च है। इस 'जौहरीबाजार'* में हों, तो अलग भाव होते हैं, 'दारूखाना'* में अलग भाव होते हैं और 'चोरबाजार* (* मुंबई के इलाकों का नाम) में अलग भाव होते हैं। प्रश्नकर्ता : होते हैं, क्योंकि प्रतिक्षण भाव बदलते हैं। दादाश्री : जो बदलता है वह आत्मा नहीं है, वे भावक हैं। 'शुद्धात्मा' में रहे उसे 'डुंगरी'* भी बाधक नहीं है, 'दारूखाना' भी बाधक नहीं है, 'जौहरीबाजार' भी बाधक नहीं है और 'चोरबाजार' भी बाधक नहीं है। यह 'रिलेटिव' ज्ञान का आधार है इसलिए जैसे ही स्थान बदलता है, वैसे ही भाव बदल जाते हैं। यह इन्द्रियज्ञान है और इन्द्रियज्ञान के कारण भाव बदलते हैं। स्वरूप का भान हो जाए उसके बाद भावकों का कुछ

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