Book Title: Aptavani 04
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 169
________________ (३७) क्रियाशक्ति : भावशक्ति २८१ २८२ आप्तवाणी-४ वह नहीं है। 'मुझे जलेबी पर खूब भाव है।' वह जो भाव कहते हैं, वह कहीं भी भाव शब्द का प्रयोग कर लिया जाता है। वास्तव में तो भाव आँखों से दिखे वैसी वस्तु ही नहीं है। जिन्हें ये लोग भाव कहते हैं, वे तो इच्छाएँ विचार और भाव उन दोनों का लेना-देना नहीं है। प्रश्नकर्ता : विचार आएँ और भाव हों, उन दोनों का डिमार्केशन नहीं होता है। दादाश्री : जो विचार आते हैं, वे सभी डिस्चार्ज स्वरूप हैं और भाव चार्ज हैं। विचार कितने भी आते हों, उसमें हर्ज नहीं है, परन्तु 'खुद' ज्ञान में रहे तो। प्रश्नकर्ता : इस जन्म में जो भाव करें, उनका इसी जन्म में फल मिलता है? उत्पन्न होती है। इच्छा परिणाम है, भाव कॉज़ेज़ हैं। सभी इच्छाएँ इफेक्ट हैं। हमें नक्की रखना है कि मुझे जगत् की कोई चीज़ नहीं चाहिए, ताकि अंदर सील (पक्का बंद) हो जाए। स्वरूपज्ञान होने के बाद जो इच्छाएँ होती हैं, वे इफेक्ट हैं। और इफेक्ट्स सब भोग लेने पड़ते हैं। संयोगों का मूल, भाव प्रश्नकर्ता : संयोग और भाव में क्या फर्क है? दादाश्री : बहुत फर्क है। संयोग स्थूल वस्तु है और भाव तो बहुत सूक्ष्म वस्तु है, हालांकि भाव भी संयोग ही कहलाते हैं। इसलिए भगवान महावीर ने कहा है, 'शेषा मे बाहिराभावा, सव्वे संजोग लख्खणा' शेष सभी बाह्यभाव हैं। वे किस तरह से पहचाने जाएंगे? तब कहें, कि संयोग मिलें उन पर से, उनके लक्षण पर से पहचाना जाता है कि ये मेरे बाह्यभाव इस तरह के किए हुए थे। ये आप मुझे मिले तो किस प्रकार के बाह्यभाव किए हुए होंगे कि आप मिले? प्रश्नकर्ता : सत्संग के। दादाश्री : इसलिए यह सत्संग का संयोग मिला और शराब पीने का बाह्यभाव किया होता तो? अर्थात् भाव के आधार पर हमें संयोग मिलता है। यह संयोग मिला तो 'मैंने क्या भाव किया होगा', उसका हिसाब निकालकर उसका छेदन मूल में से ही कर देना। 'ज्ञानी' भाव पर से मूल ढूंढ निकालते हैं और उसका छेदन कर देते हैं। भाव अलग - विचार अलग प्रश्नकर्ता : भाव होते हैं और विचार आते हैं, उनमें क्या फर्क है? दादाश्री : भाव को जगत् के लोग जिस प्रकार से समझते हैं, वैसा दादाश्री : नहीं। भाव तो कितनी सारी वस्तुएँ इकट्ठी हों, तब उसका द्रव्य होता है। भाव का द्रव्य होते-होते तो कितना ही समय लग जाता है। कर्म का परिपाक हो, तब फल आता है। हम दूध लेकर आए, यानी खीर बन गई, ऐसा नहीं कहा जा सकता। वह तो चूल्हा जलाएँ, पतीली रखें, हिलाते रहें, तब खीर बनती है। क़ीमत, भाव की ही संसार में वस्तुएँ बाधक नहीं हैं, आपके भाव बाधक हैं। भगवान ने कहा था कि द्रव्य होगा तो भाव उत्पन्न होगा। वैसा अच्छे काल में था। दान दें तब मन में उल्लास होता था कि, 'ऐसा संयोग फिर से आए।' और इस काल में तो द्रव्य अलग और भाव अलग। दान देते समय भाव में ऐसा होता है कि, 'मैं तो दान देता ही नहीं, यह तो नगरसेठ ने दबाव डाला, इसलिए दिया', इसलिए मन अलग, वाणी अलग और आचरण अलग। इसलिए अधोगति के दौने भरते हैं। वह प्रपंच है इसलिए।

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