Book Title: Aptavani 04
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 165
________________ (३६) भाव, भाव्य और भावक २७३ ज्ञान' हो तो वे भावक कुछ भी नहीं करेंगे। 'मूल ज्ञान' अर्थात् 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा भान होना वह, उसके बाद भावकों का कुछ भी नहीं चलता । जब तक 'मूल ज्ञान' नहीं होता, तब तक भावक टकराव करवाते ही रहते हैं। यहाँ से धक्का मारते हैं और वहाँ से धक्का मारते हैं। वे फुटबॉल की तरह टकराव करवाते हैं। प्रश्नकर्ता: ये भावक अंत:करण के कौन-से भाग में होते हैं? मन में होते हैं? दादाश्री : नहीं। भावक तो अंत:करण से भी अलग हैं! वे अंतःकरण में नहीं आते। अंत:करण तो भावकों के बताए अनुसार चलता है। भावक आत्मा को मूर्छित कर देते हैं, इसलिए आत्मा भाव्य हो जाता है। तब फिर यह अंत:करण शुरू होता है। और यदि 'मैं शुद्धात्मा हूँ', ऐसा भान रहे तो वैसे लाख भावक आएँ तो भी कोई हर्ज नहीं है। भीतर भावक अकेला नहीं है। क्रोधक, लोभक, निंदक, चेतक ऐसे कितने ही 'क' अंदर हैं। 'क' अर्थात् करवानेवाले हैं। अंदर तो पूरा ब्रह्मांड है ! प्रश्नकर्ता : अर्थात् भावक, आत्मा को मूर्छित कर दें, वैसे भाव उत्पन्न करते हैं? दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है। भावक ऐसा उत्पन्न कर देते हैं कि आत्मा मूर्छित हो जाता है। मूर्छित अर्थात् खुद के स्वरूप का भान खो देता है। जैसे यहाँ पर कुछ गैस का फूटा हो तो मनुष्य अचेत हो जाता है न? वैसे ही आत्मा को भावक भाव करवाते हैं, उसका असर होता है। असर किसे नहीं होगा? खुद के स्वरूप का भान हो उसे नहीं होगा। वर्ना यह संसारिक ज्ञान आत्मा को असर से मुक्त नहीं रखता है। यह संयोगों का दबाव इतना अधिक है कि उसे असरमुक्त नहीं रहने देता। जब 'मैं शुद्धात्मा हूँ', ऐसा जानेगा तब भावकों का जोर नहीं रहेगा। सामान्य समझ ऐसी है। कि आत्मा भाव करता है, उससे काल, भाव और कर्म बंध गया है, परन्तु आत्मा भाव करे तब तो हो चुका, खत्म हो गया। तब तो वह किसी चीज़ का भिखारी है, ऐसा हुआ। २७४ में हैं? आप्तवाणी-४ भावक भाव करवाते हैं और भावक ही आत्मा को भाव्य बनाते हैं। प्रश्नकर्ता : ये भावक हैं, वे परमाणु के रूप में हैं या गाँठ के रूप दादाश्री : परमाणुओं के रूप में हैं। वे पुद्गल परमाणु हैं। प्रश्नकर्ता: उसका अर्थ ऐसा हुआ कि खुद का मनचाहा हुआ तो आत्मा अंदर तन्मयाकार हो जाता है? दादाश्री : हाँ और उसे अच्छा नहीं लगता हो तो तन्मयाकार नहीं होता। अर्थात् 'वह' भाव्य नहीं बने तो कुछ भी नहीं हो । प्रश्नकर्ता : अर्थात् तन्मयाकार नहीं हो तो चित्रण नहीं होगा? दादाश्री : तन्मयाकार नहीं हो तब तो कोई हर्ज ही नहीं, परन्तु 'वह' तन्मयाकार हुए बगैर रहता ही नहीं। 'स्वरूप' का भान हो जाए तभी 'वह' तन्मयाकार नहीं होगा। भावक, समसरण के अनुसार बदलते रहते हैं वे भावक भी फिर बदलते रहते हैं। दसवें मील पर जो भावक ऐसे होते हैं, तो ग्यारहवें मील पर नई ही प्रकार के होते हैं, बारहवें मील पर उससे भी नई प्रकार के होते हैं। क्योंकि 'हम' सब गति कर रहे हैं। अर्थात् वास्तव में तो कोई कर्त्ता है ही नहीं इस जगत् में आत्मा भी कर्त्ता नहीं है और पुद्गल भी कर्त्ता नहीं है। यदि पुद्गल कर्त्ता होता तो पुद्गल को भुगतना पड़ता और आत्मा कर्ता होता तो आत्मा को भुगतना पड़ता । न तो आत्मा भुगतता है और न ही पुद्गल भुगतता है, अहंकार भुगतता है। प्रश्नकर्ता : यह जो सब खड़ा हुआ है, वह मूलतः तो खुद के आशय में से ही खड़ा हुआ है न? दादाश्री : नहीं, नहीं। आशय वगैरह कुछ नहीं । यह तो 'आ फँसे ' जैसा हो गया है, खुद के आशय में होता तब तो वह 'स्वयं' गुनहगार माना जाएगा, 'स्वयं' कर्त्ता बन गया कहा जाएगा !

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