Book Title: Aptavani 04
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 146
________________ (३३) लोभ की अटकण हो उसे संतोष रहता है और आत्मज्ञान हो वहाँ तो तृप्ति ही रहती है। जिसने अनंत जन्मों से भोगा हुआ हो उसे संतोष रहता है, उसे कोई चीज़ नहीं चाहिए। और जिसने नहीं भोगा हुआ होता उसके अंदर किसी-किसी तरह का भाव आ जाता है, ‘यह भोग लूँ, वह भोग लूँ' ऐसा रहता है। राजसी सुख पूर्वजन्म में भोगा हुआ हो तो अभी आपको राज्य दें तो भी आपको पसंद नहीं आएगा, ऊब होगी ! २३५ प्रश्नकर्ता: कुछ लोगों को तो लोकसंज्ञा के कारण सबकुछ चाहिए । किसीकी गाड़ी देखे तो उसे खुद को भी चाहिए। दादाश्री : वह लोकसंज्ञा कब उत्पन्न होती है? खुद भीतर तृप्त नहीं हो तब। मुझे अभी तक कोई सुख देनेवाला नहीं मिला ! बचपन से ही मुझे रेडियो लाने तक की जरूरत नहीं पड़ी। ये सब जीते-जागते रेडियो ही फिरते रहते हैं न! भी हरएक बात का लोभ प्रश्नकर्ता: लोभी थोड़ा कंजूस होता है न? दादाश्री : नहीं, कंजूस तो फिर अलग होते हैं। वह तो पैसे नहीं हों, इसलिए कंजूस बनता है और लोभी के घर पर तो पच्चीस हज़ार रुपये पड़े हों, फिर भी किस तरह घी सस्ता मिलेगा वैसा चित्त में घूमता रहता है, जहाँ-तहाँ लोभ में ही चित्त होता है। मार्केट में जाए तो भी किस जगह पर सस्ता ढेर मिल रहा है, वही ढूंढता रहता है! लोभी किसे कहते हैं कि जो प्रत्येक लोभ के बारे में जागृत हो। खुद के पास वस्तु की कमी है और पड़ोस में से ले आए उसे लोभी नहीं कहते । परन्तु खुद के पास सबकुछ ही है फिर भी ढूंढे, वह लोभी । ܀܀܀܀܀ (३४) लगाम छोड़ दो तो कर्त्तापद का अध्यास छूटे अपने यहाँ अक्रम में सामायिक, ध्यान या कोई क्रिया नहीं होती है। वह तो बाहर व्यवहार में होता है। व्यवहारिक ध्यान या सामायिक अर्थात् क्या कि बाहर से खुद का बाउन्ड्री नक्की हो और उसके अंदर बाहर से किसीको घुसने नहीं देना, जो आए उसे निकालते रहना और घेरे में किसीको घुसने नहीं देना। वे भगाएँ तो भी घुस जाते हैं उसमें। और अपने यहाँ तो जो घुस जाते हैं, जो अंदर होता है, उसे देखते ही रहना है। अपना सामायिक कैसा है कि जो भी विचार आएँ वे खराब आएँ या अच्छे आएँ, सभी को 'देखना' है, सिर्फ देखते ही रहना है। जैसे सिनेमा में देखते हैं कि अंदर लोग मारामारी कर रहे हैं, झगड़ा कर रहे हैं, परन्तु हम उसमें इमोशनल नहीं होते हैं न? जैसा सिनेमा में है, वैसा। अंदर का पूरा सिनेमा देखना, वह सामायिक है। अड़तालीस मिनिट किया जाए तो वह बहुत काम हो जाए। यह लगाम छोड़ देने का प्रयोग हफ्ते में एक दिन आप करके तो देखो ! रविवार हो उस दिन सुबह से ही लगाम छोड़ दो और कहना कि, 'दादा, यह लगाम आपको सौंपी। ये पाँचों ही इन्द्रियोंरूपी घोड़ों की लगाम हमें सौंप दो और आपको तो सिर्फ देखते ही रहना है कि किस तरह चल रहा है वह ।' यह गाड़ी को खड्डे में नहीं पड़ने देगा और कुछ भी नहीं होना देगा। यह तो आपको लगाम पकड़ना नहीं आता और ढलान आए तब लगाम ढीली रख देते हो और चढ़ाई आए तब लगाम खींचते रहते हो, तो घोड़े भी बेचारे हाँफ-हाँफकर थक गए हैं। और उनके मुँह लहूलुहान

Loading...

Page Navigation
1 ... 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191