Book Title: Aptavani 04
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 138
________________ (२९) चिंता : समता २१९ २२० आप्तवाणी-४ 'ज्ञानी' के सांनिध्य में कैसी निराकुलता! परिषह है। परिषह अर्थात् वेदना खड़ी होती है। चिंता नहीं हो उसके लिए नक्की कर कि मन के विचार सूक्ष्म संयोग हैं, वे 'ज्ञेय हैं' और 'मैं ज्ञाता हैं'। विचार तो आएँगे परन्तु उनका प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। या फिर उन्हें निर्माल्य कर देना पड़ेगा। जिसे विचार आते हैं, वह निर्जीव भाग है। विचार किए कि अंतराय पड़े। जो शक्ति हमारी नहीं है, वहाँ हाथ क्यों डालें? यह 'अक्रमज्ञान' हम दें, फिर चिंता हो तो हमारे ऊपर कोर्ट में वकील रखकर दावा करना, ऐसी गारन्टी देते हैं। संसार की चिंताएँ गईं यानी प्रथम मोक्ष हुआ। फिर पहले के जो हिसाब हैं वे चुक जाएँ, वह दूसरा मोक्ष। दूसरा मोक्ष अर्थात् पूर्णाहुति। भ्रांति में शांति रहती है? इस जगत् में शांति किस तरह रहे? करोड़ रुपये हों तो भी नहीं रहे। जहाँ भ्रांति है, वहाँ शांति कैसी? प्रश्नकर्ता : यह शांति हमेशा क्यों नहीं रहती. इतना-इतना धर्म करने के उपरांत भी? दादाश्री : क्योंकि आप निरंतर अचेतन में रहते हो। चेतन में रहो तभी निरंतर सुख रह सकता है। प्रश्नकर्ता : शांति प्राप्त करने के लिए कौन-से प्रयत्न करने चाहिए? दादाश्री : जिसमें प्रयत्न करना पड़े उसमें शांति होती ही नहीं, वह तो उठापटक है। जगत् में अनेक प्रकार की शांति होती है, परन्तु वे सब मूर्छित शांति और आत्मशांति तो किसी भी प्रकार की मूर्छा से रहित शांति होती है। आत्मशांति से तृप्ति होती है और मूर्छित शांति से तृप्ति नहीं होती। अशांति गई और शांति आई तब से ही समझना कि कर्म बंधने रुक गए हैं, उसके बाद ही अंत आएगा। एकबार हम 'विहार लेक' पर घूमने गए थे। वहाँ शयदा साहब, उनके एक मुसलमान मित्र कि जो कोर्पोरेटर थे, उन्हें दर्शन करवाने ले आए। उनकी बीवी-बच्चे सब आए थे, वे व्यक्ति बहुत विचारशील और औलिया जैसे व्यक्ति थे। वे नीचे मिट्टी में बैठते थे तो किसीने कहा, "नीचे चींटियाँ काटेंगी, इसलिए 'दादा' के पास में बैठिए।' तब उन्होंने कहा, 'दादा की हाज़िरी में चींटियाँ कैसे काटेंगी?' फिर उन्हें हमने हमारे पास बैठाया। दस मिनिट बाद बोले, 'मैं धर्म की इतनी सारी जगहों पर घूमा हूँ, परन्तु मुझे इन दस मिनिटों में जो शांति हो गई, वैसी कहीं भी नहीं हुई। तो इसका क्या कारण होगा?' तब मैंने उनसे कहा, "इसका दूसरा कोई कारण नहीं है। आप अभी अल्लाह के खूब नज़दीक बैठे हो। अल्लाह के नजदीक जाएँ तो सुख-शांति नहीं होगी? अल्लाह 'मेरे' एकदम नज़दीक सटकर ही बैठे हुए हैं और आप मेरे पास बैठे हो। यानी बिल्कुल नज़दीक आ गए न? फिर कैसी शांति बरतेगी!" 'ज्ञानी पुरुष' के पास तो केश डिपार्टमेन्ट है। 'दिस इज द केश बैंक ऑफ डिवाइन सोल्युशन (यह तो अलौकिक समाधानों का नक़द बैंक है)।' जिसका पुण्य जागे वह मुझे मिल जाता है और उसका काम हो जाता है। प्रश्नकर्ता : आनंद, शांति किसे कहते हैं? दादाश्री : शांति 'रिलेटिव' में होती है और परमानंद पूर्णत्व में होता है। परमानंद अर्थात् परमतृप्ति। इस देह के हिसाब भी चुक जाते हैं तब तृप्ति, परमानंद रहता है। देह का बोझ है, तब तक तृप्ति नहीं रहती। समता, वहाँ राग-द्वेष नहीं समता बहुत बड़ी चीज़ है। घर पर पत्नी बोली हो और सुन ले, उसे लोग समता कहते हैं। परन्तु वह समता नहीं कहलाती। भीतर अजपा (बेचैनी, अशांति, घबराहट) होता रहता है उसे समता कैसे कहा जाए?

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