Book Title: Aptavani 04
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 128
________________ (२४) मोक्षमार्ग की प्रतीति १९९ २०० आप्तवाणी-४ है कि आत्मा, वही 'मैं हूँ'। इसे आत्मा कहना गलत है। अभी 'मैं हूँ' कहता है वह 'मिकेनिकल' आत्मा है। जो दरअसल आत्मा है, वह तो इससे अलग है। वह तो हम जब 'दरअसल आत्मा' का भान करवाते हैं, तब उसका 'आपको' भान होता है। तब 'मैं' दरअसल आत्मा में 'फिट' हो जाता है। वस्तुत्व का भान होने के बाद 'मैं' मूल अस्तित्व में फिट हो जाता है। आत्मा का अस्तित्व, वस्तुत्व और पूर्णत्व है। अस्तित्व का भान तो सभी को है, परन्तु वस्तुत्व का भान नहीं है, हम वस्तुत्व का भान करवा देते हैं तब वह 'खुद''खुद' में फिट हो जाता है, फिर पूर्णत्व होता रहता है। अर्थात् 'स्वयं''अपने' स्वभाव में और पुद्गल उसके स्वभाव में रहता है, प्रकृति, प्रकृति के स्वभाव में और पुरुष, पुरुष के स्वभाव में रहता है! दोनों अलग बातें हैं, इसलिए फिर बिल्कुल अलग ही बरतता है! 'ज्ञानी पुरुष' में अनंत प्रकार की सिद्धियाँ होती हैं, इसलिए ऐसा हो सकता है। उनमें तो बहुत प्रकार की सिद्धियाँ होती हैं. गज़ब की सिद्धियाँ होती हैं। क्योंकि जिन्हें कोई अपेक्षा नहीं हो, उनमें बहुत प्रकार की सिद्धियाँ होती हैं। प्रश्नकर्ता : मोक्षमार्ग में व्यवहार बाधा तो डालता है न? इस काल के मनुष्य पूर्वविराधक हैं। पूर्वविराधक अर्थात् किसीको परेशान करके आए हैं! इसलिए तो अभी तक भटके हैं। हमें देव-देवियों का आराधन इसलिए करना है कि उनकी तरफ से कोई क्लेम नहीं रहे। अपने मार्ग में बीच में वे अंतराय नहीं डालें और हमें निकल जाने दें और हैल्प करें। हमारा इस गाँव के साथ पहले झगड़ा हुआ हो और इस गाँव के लोगों की आराधना के भाव रखें तो झगड़ा मिट जाता है और बल्कि काम अच्छा होता है। उसी तरह पूरे जगत् की आराधना से शासन देव-देवियाँ ही नहीं, परन्तु जीव-मात्र की आराधना से अच्छा होता है। शासन देव-देवियाँ निरंतर शासन पर, धर्म पर कोई भी अड़चन आए, तब वे हेल्प करते हैं! और यह मोक्षमार्ग ऐसा है कि यहाँ से डायरेक्ट मोक्ष में नहीं जाया जा सकता, एक-दो जन्म बाकी रहते हैं, ऐसा यह मार्ग है। इस काल में यहाँ से डायरेक्ट मोक्ष नहीं होता है। इस काल की विचित्रता इतनी अधिक है कि सारे कर्म कम्प्रेस करके लाए हैं, वे पूरे दिन प्लेन में घूमें तो भी काम पूरे नहीं होते, साइकिल लेकर घूमें, पूरा दिन भटकते रहें, पर काम पूरे नहीं होते। यानी एक-दो जन्म जितने कर्म बाकी रहते हैं। यानी यह मोक्ष ही कहलाएगा न? परन्तु मोक्ष का यहाँ पर ही अनुभव हो जाता है और जुदापन का भान होता है, 'मैं जुदा हो चुका हूँ' ऐसा भान होता है। प्रश्नकर्ता : आपकी मान्यता से इन जैनों की चौथ-पाँचम के लिए कौन-सी तिथि सच्ची है? चौथ या पाँचम? दादाश्री : जो तुझे अनुकूल आए वह सच्ची, जिससे तेरे द्वारा धर्म हो वह सच्ची और अधर्म हो वह गलत। प्रश्नकर्ता : जैन किसे कहते हैं? दादाश्री : जिन अर्थात् आत्मज्ञानी और जिनेश्वर अर्थात् तीर्थंकर, जिसने जिन या जिनेश्वर की वाणी सुनी हो वह जैन। जिसने सुना, श्रद्धा में लिया और जितने अंशों का पालन किया, वह श्रावक और जिसने संपूर्ण पालन किया वह साधु। दादाश्री : वास्तव में ऐसा कहना चाहते हैं कि यदि व्यवहार बाधक होता तो इन साधुओं, संन्यासियों, आचार्यों ने व्यवहार छोड़ दिया है, तो अब उनके लिए हल आ जाना चाहिए, ऐसा अर्थ हुआ। परन्तु ऐसा होता नहीं है। वास्तव में मोक्ष के लिए व्यवहार बाधक नहीं है। मोक्ष में व्यवहार बाधा नहीं डालता, सिर्फ अज्ञान ही बाधक है। 'ज्ञानी पुरुष' ऐसा अचूक ज्ञान देते हैं कि तुरन्त ही वर्तन में आ जाता है। जो ज्ञान क्रियाकारी हो, वही ज्ञान कहलाता है, बाकी सब ज्ञान नहीं है। प्रश्नकर्ता : मोक्षमार्ग मुक्ति का मार्ग है, उसमें कुछ भी अपेक्षा नहीं हो सकती। तो फिर इसमें शासन देव-देवियों को राजी रखने की क्या ज़रूरत है? दादाश्री : इन शासन देव-देवियों को राजी इसलिए रखना है कि ܀܀܀ ܀܀

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