Book Title: Aptavani 04
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 116
________________ (२१) तपश्चर्या का हेतु १७५ १७६ आप्तवाणी-४ यह ध्यान क्या नहीं करता? दो पैरों में से चार पैर कर देता है। दो पैरों से गिर जाता हो, उसके बदले चार पैर हो जाते हैं, तब गिरा तो नहीं जाएगा न फिर?! यह तो उपवास करता है और साथ में कषाय भी करता है। कषाय करने हों तो उपवास मत करना और उपवास करना हो तो कषाय मत करना। आर्तध्यान और रौद्रध्यान किए बिना उपवास करना चाहिए। तब जिस दिन उपवास नहीं हो उस दिन यदि खाने का दो बजे तक नहीं मिले तो शोरशराबा कर देता है, लटू उछलता रहता है और चिल्लाता रहता है कि यह गाँव ही ऐसा है कि यहाँ होटल ही नहीं! वास्तव में, उस समय, उस जगह पर सँभाल लेना है। अरे, आज वीतराग का कहा हुआ उपवास कर न तो मन कूदना बंद हो जाएगा। और विवाह के मौके पर अच्छाअच्छा खाने-पीने का हो, तब 'आज मेरा उपवास है' कहकर खड़ा रहेगा! लोग ऐसे हो गए हैं!! यह तो कुछ भान ही नहीं है लोगों को कि कौनसे संयोगों में उपवास करें। जब खाने का नहीं मिले या मनभाता भोजन नहीं मिले तो तप में तपना। यह तो खाने का उसे समय पर हाज़िर हो जाए वैसा है। और जब नहीं मिले तब समझ जा न कि ऐसा नहीं लगता कि आज ठिकाना पड़ेगा इसलिए आज उपवास है। पर यह तो सेठ क्या करेगा कि भूख लगी तो जाकर लक्ष्मी लॉज देखकर ऊपर चढ़ेगा और कहेगा कि, 'यह तो गंदी है, ये लोग तो गंदे दिखते हैं।' तब सेठ नीचे उतर जाते हैं और कषाय करते हैं। खाना-पीना सब सारे मसाले आपके लिए तैयार हैं, लोग तंग आ जाएँ उतनी सामग्री है। लेकिन किसलिए नहीं मिलता है? क्योंकि अंतराय लाया है। बत्तीस-बत्तीस प्रकार के भोजन मिल जाएँ ऐसा है, पर इन्हें तो शुद्ध घी डली हई खिचडी भी नहीं मिलती, क्योंकि अंतराय लेकर आए हैं। भगवान ने कषाय करने को मना किया है। तप करते समय कषाय करे, उसके बदले तप नहीं करे तो अच्छा। कषाय की बहुत ही कीमत है। तप में जितना लाभ है, उससे अधिक कषाय में नुकसान है। यह वीतरागों का धर्म लाभालाभवाला है। इसलिए सौ प्रतिशत लाभ हो और अठानवे प्रतिशत नुकसान हो तो दो प्रतिशत हमारे घर में बचा, ऐसा मानकर व्यापार करना है। परन्तु कषाय से सबकुछ जलकर भस्मीभूत हो जाता है, कषाय सबकुछ ही खा जाता है। किस प्रकार खा जाता है? यह तो उसके जैसा है कि अंधा आदमी डोरी बना रहा हो और पीछे बछड़ा चबाता रहे। अंधा समझता है कि डोरी लम्बी होती जा रही है और बछड़ा डोरी चबा जाता है। वैसा ही इन सब अज्ञानक्रियाओं का फल है। एकबार समझकर करे तो काम हो जाए। अनंत जन्मों से ऐसे के ऐसे ही किया है। जप किए, तप किए, पर फिर वह आज्ञापूर्वक नहीं किया। खद के मत से, स्वच्छंद से किया। सिर पर समकिती गुरु हों तो उनकी आज्ञासहित करना चाहिए। गुरु समकिती होने चाहिए, मिथ्यात्वी गुरु नहीं चलेंगे। मिथ्यात्वी गुरु हमारा मिथ्यात्व नहीं निकालते फिर भी मिथ्यात्वी गरु हों तो हमें उनकी सेवा करनी चाहिए। परन्तु गुरु तो समकिती चाहिए, जिन्हें आत्मा का भान हो वैसे गुरु बनाएँ तब अपना काम होगा। बाक़ी मिथ्यात्वी का संग करें तो अपना संघ काशी में जाएगा नहीं और रास्ते में ही भटक मरेगा! प्रश्नकर्ता : जागृतिपूर्वक के उपवास किसे कहते हैं? दादाश्री : कोई जागृत व्यक्ति हो, उसके निमित्त से उपवास करो तो वह जागृतिपूर्वक किया कहा जाएगा। अभी मैं जागृत पुरुष हूँ, यदि मेरे शब्द से उपवास करे तो वह जागृतिपूर्वक का उपवास कहा जाएगा। प्रश्नकर्ता : जागृति प्राप्त करने से पहले क्राइस्ट, बुद्ध ने भी उपवास किए थे न? दादाश्री: सिर्फ उपवास ही नहीं, परन्तु दूसरी बहुत सारी चीजें उन्होंने की थीं। भोजन खुद ही मादक वस्तु है। कोई भी भोजन हो, पर वह मादक वस्तु है, इसलिए उसकी मादकता में सभी मजे करते रहते हैं। उपवास से उसकी सारी मादकता उतर जाती है। परन्तु उस जागृति का बाद में फिर पोषण नहीं हो तो बेकार है। वह शरीर को अच्छा बनाता है, ज़रा-सा मन अच्छा करता है, उतना ही। पर फिर जागृति नहीं रहती, वह वापिस सो

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