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(५) अभिप्राय
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आप्तवाणी-४
कहलाएगा। पिछला याद करने से बहुत नुकसान होता है।
प्रश्नकर्ता : पर ध्यान में तो रखना चाहिए न वह?
दादाश्री : वह तो अपने आप हो ही जाता है। ध्यान में रखें तो प्रेज्युडिस होता है। प्रेज्युडिस से तो फिर संसार बिगड़ता है। हमें वीतराग भाव से रहना है। पिछला लक्ष्य में रहेगा ही, पर वह कुछ हेल्पिंग चीज नहीं है। अपने कर्म के उदय वैसे थे, इसलिए उसने हमारे साथ वैसा वर्तन किया था। उदय अच्छे हैं तो ऊँचा वर्तन करेगा। इसलिए प्रेज्युडिस रखना मत। आपको क्या मालूम पड़े कि जो पहले ठगकर गया, वह आज नफा देने आया है या नहीं? और आपको उसके साथ व्यवहार करना हो तो करो और नहीं करना हो तो मत करना। परन्तु प्रेज्युडिस मत रखना। और शायद कभी व्यवहार करने का समय आए तब तो बिल्कुल प्रेज्यूडिस मत रखना।
प्रश्नकर्ता : अभिप्राय वीतरागता तोड़ते हैं?
दादाश्री : हाँ। हमें अभिप्राय नहीं होने चाहिए। अभिप्राय अनात्म विभाग के हैं, वह आपको समझना है कि वे गलत हैं, नुकसानदायक है। खुद के दोष, खुद की भूलें, खुद के व्यू पोइन्ट्स से अभिप्राय बाँधते हैं। आपको अभिप्राय बाँधने का क्या राइट (अधिकार) है?
प्रश्नकर्ता : अभिप्राय बंध जाएँ और वे मिटे नहीं, तो नया कर्म बंधता है?
हाथ में है, तो अभिप्राय रखने की ज़रूरत ही कहाँ है? स्वरूपज्ञान मिलने के बाद ज्ञाता-ज्ञेय का संबंध प्राप्त होने के बाद दो-पाँच अभिप्राय पड़े हों उन्हें निकाल दें, तो विद ऑनर्स पास हो जाएँ हम!
___ अभिप्राय के कारण जैसा है वैसा देखा नहीं जा सकता, मुक्त आनंद का अनुभव नहीं होता, क्योंकि अभिप्राय का आवरण है। अभिप्राय ही न रहें, तब निर्दोष हुआ जाता है। स्वरूपज्ञान के बाद अभिप्राय है तब तक आप मुक्त कहलाते हो, लेकिन महामुक्त नहीं कहलाते। अभिप्राय के कारण ही अनंत समाधि रुकी हुई है।
पहले जो कॉजेज़ थे, उनका अभी इफेक्ट आ रहा है। लेकिन उस इफेक्ट पर 'अच्छा है, बुरा है', ऐसा अभिप्राय देता है, उससे राग-द्वेष होते हैं। क्रिया से कॉज़ेज़ नहीं बंधते, पर अभिप्राय से कॉज़ेज़ बंधते हैं।
स्वागत योग्य अभिप्राय चीजें भोगने में हर्ज नहीं है, लेकिन उन पर अभिप्राय नहीं रहना चाहिए। 'अब मुझे हर्ज नहीं' ऐसा अभिप्राय भी नहीं होना चाहिए। झूठ बोल लिया जाए उसमें हर्ज नहीं, पर अभिप्राय तो 'सत्य' बोलने का ही होना चाहिए।
अब्रह्मचर्य का हर्ज नहीं, पर उसका अभिप्राय नहीं होना चाहिए। अभिप्राय तो 'ब्रह्मचर्य' का ही होना चाहिए। अभिप्राय तो 'यह देह धोखा है' उसमें रखना है। किसी भी प्रकार का अभिप्राय बोझा बढ़ाता है। जिसका अभिप्राय, उसका बोझा!
हम सामनेवाले पर अभिप्राय रखें, इसीलिए वह हम पर रखता है। हम अपना अभिप्राय तोड़ दें तो उसका अभिप्राय अपने आप चला जाएगा।
अभिप्राय का स्वरूप प्रश्नकर्ता : अभिप्राय अर्थात् प्रतिष्ठित अहंकार? दादाश्री : हाँ। अभिप्राय अहंकार के परमाणुओं से बना हुआ है।
दादाश्री: यह अक्रमविज्ञान प्राप्त हो गया हो और आत्मा-अनात्मा का भेदज्ञान हो गया हो, उसे नया कर्म नहीं बंधता। हाँ, अभिप्रायों का प्रतिक्रमण नहीं हो तो सामनेवाले पर उसका असर रहा करता है। इसलिए उसे आप पर भाव नहीं आता। शुद्ध भाव से रहे तो एक भी कर्म बंधेगा नहीं और यदि प्रतिक्रमण करो तो वह असर भी उड़ जाएगा। सात से गुणा किया उसे सात से भाग दे दिया, वही पुरुषार्थ ।
जन्म से मृत्यु पर्यंत 'साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स' के