Book Title: Aptavani 04
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 49
________________ (३) प्रारब्ध-पुरुषार्थ आप्तवाणी-४ हुई? कढ़ी क्यों इस तरह ढोल दी? ऐसा किया और वैसा किया?' अरे, कढ़ी दुल गई तो वह संयोग कहलाता है। इससे से दो भाग अलग हुए कि संयोग और वियोग दो ही हैं संसार में। जितने संयोग हैं, उतने वियोग होने ही वाले हैं। और संयोग जो हुआ, उसमें समता रखनी, वह पुरुषार्थ। कोई फूल चढ़ाए तब ऐसे छाती फुलाए तो वह पुरुषार्थ नहीं कहलाता। स्वाभाविक जो कुछ भी होता है, वह प्रारब्ध है। फूल चढ़ाएँ, तब हम ऐसे पद्धतिपूर्वक रहें, वैसा पुरुषार्थ पहले कभी हुआ था? प्रश्नकर्ता : नहीं। मैं जानता ही नहीं था कि यह पुरुषार्थ है। दादाश्री : इसलिए हम कहते हैं कि प्रारब्ध और पुरुषार्थ को समझो। और जो पुरुषार्थ होता है, उसे खुद जानता नहीं है, वह स्वाभाविक होता है, वह नींद में होता है। प्रश्नकर्ता : यह जो प्रारब्ध है, वह जैसा पिछले जन्म में चार्ज हुआ हो, उसके अनुसार ही प्रारब्ध आता है? दादाश्री : जो चार्ज हो चुका है, वह डिस्चार्ज होता है। वह संयोग स्वरूप से डिस्चार्ज होता है। और उल्टा संयोग मिला हो, उसे सीधा कर लेना, वह पुरुषार्थ है। फिसलने में तो हरकोई फिसलता है, उसमें क्या पुरुषार्थ किया कहलाएगा? फिसलने में रुकना, वह पुरुषार्थ कहलाता है। यह तो बिल्कुल अँधे भूत होकर टकराते हैं और अपने आप को जाने क्या ही मानते हैं ! यह सब समझना पड़ेगा न? गलत बात को सत्य माना गया है, तो उसका ओरछोर कब आएगा? जिसका ओर नहीं आए, उसका छोर आएगा क्या? और यह 'व्यवस्थित' का ज्ञान तो सब लोगों के लिए नहीं है। क्योंकि उनके पास अहंकार है न! अब अहंकार 'व्यवस्थित' के ताबे में है और वह खुद कहता है कि मैं कर रहा हूँ, इसलिए उन दोनों का वहाँ पर टकराव होता है। 'व्यवस्थित' में भी दखल करके बल्कि सख बिगाडता है। वह अहंकार से यदि इतना दखल नहीं करता हो और समता से यदि पुरुषार्थ करता हो, तो बहुत लाभदायक हो जाता है। फिर भी 'उससे' 'व्यवस्थित' तो माना ही नहीं जाता। 'व्यवस्थित' तो शुद्ध होने के बाद, 'आत्मा' प्राप्त होने के बाद ही समझ में आता है ! जगत् है ही 'व्यवस्थित' उसमें दो मत नहीं हैं, परन्तु जो अहंकार है. वह यदि 'व्यवस्थित' कहे तो दखल हो जाता है। इस प्रारब्ध को ही लोगों ने इतना अधिक उल्टा कर दिया है, वहाँ दूसरे अवलंबन की तो बात ही क्या? प्रश्नकर्ता : 'ज्ञानी पुरुष' की कृपा से प्रारब्ध बदला जा सकता है? दादाश्री : बदल सकता है, पर किस तरह? भुगतने का रस बहुत कड़वा हो तो वह कम कड़वा हो जाता है। कड़वाहट कम हो जाती है. लेकिन भुगतने का मूल नहीं जाता। स्वरूपज्ञान नहीं हो और किसीके साथ आपको क्रोध हुआ या किसीने आप पर क्रोध किया तो आपको सहज रूप से गलत लगता है या डिप्रेस हो जाते हो अथवा तो उस व्यक्ति पर गुस्सा करते हो आप। अब उस समय आप यदि अपनी प्रतिक्रिया बदल दें, तो उसे पुरुषार्थ कहते हैं। उसे, जागृत है, ऐसा कहते हैं। जागृति हो तो ही पुरुषार्थ कर सकेगा न? सोता है, इसलिए पुरुषार्थ नहीं हो सकता। इसे भावनिद्रा कहा है। यह सब प्रारब्ध ही है। प्रकृति ज़बरदस्ती नचाती है, प्रकृति उतावले को उतावला नचाती है, आलसी को धीरे-धीरे नचाती है। अब उतावला क्या कहता है कि, 'यह प्रारब्धवादी आलसी है और मैं पुरुषार्थवादी हैं।' वास्तव में तेरा उतावला प्रारब्ध है और इसका धीमा प्रारब्ध बाँधा हुआ है। दोनों संयोगाधीन है। दुकान अच्छी चले तो पुरुषार्थी माना जाता है और नहीं चले तो कहता है कि प्रारब्धवादी है। हक़ीक़त में ऐसा नहीं है। प्रारब्ध यानी 'फ्री ऑफ कॉस्ट' चीज़ है। पुरुषार्थ यानी आगे ले जानेवाली चीज़ है, वह कमाई की चीज़ है। यानी उसने तो संयम खोया. पर आपने भी संयम खोया। इसलिए दोनों अधोगति में जाओगे। अब आप संयम रखो तो आपकी अधोगति नहीं होगी, इस जगह पर फिसल नहीं जाओगे। सामनेवाला तो फिसला, पर आप भी फिसलो तो वहाँ पुरुषार्थ कहाँ कहलाएगा!

Loading...

Page Navigation
1 ... 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191