Book Title: Apbhramsa Bharti 1999 11 12
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 10
________________ "वस्तुतः देखा जाए तो किष्किंधाकाण्ड और अरण्यकाण्ड की घटनाएँ एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं और उन्हें एक काण्ड में रखा जा सकता है। स्वयंभू ने दोनों का एकीकरण न करते हुए एक को उसके पूर्व के काण्ड में जोड़ दिया है और दूसरे को उसके बाद के । इस प्रकार दो काण्डों की संख्या कम हो गई। लेकिन राम के प्रवृत्तिमूलक और उद्यमशील चरित्र को दोनों प्रधानता देते हैं।" "काव्यांशों के उदाहरणों में काव्यकार पुष्पदन्त की रीति-रमणीय रचना-प्रतिभा की प्रौढ़ता का पुष्ट प्रमाण उपलब्ध होता है। बिम्बविधान के सन्दर्भ में महाकवि पुष्पदन्त की भाषा ने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। काव्यकार की काव्य-साधना मूलतः भाषा की साधना का ही उदात्त रूप है। कोई भी कृति अपनी भाषिक सबलता के कारण ही चिरायुषी होती है। 'णायकुमारचरिउ' भी अपनी भाषिक प्रौढ़ता के साथ ही काव्यशास्त्रोपयोगी साहित्यिक तत्त्वों के सुचारु और सम्यक् विनियोजन के कारण ही कालजयी काव्य के रूप में चिरप्रतिष्ठ बना हुआ है।" - "कविवर जोइन्दु ने अपभ्रंश भाषा में परमात्मप्रकाश और योगसार ग्रन्थ की रचनाकर रूढ़ियों और बाह्याडम्बरों के विरुद्ध जन-सामान्य के लिए सहज-सरलरूप से जीवन-मुक्ति का संदेश दिया और आध्यात्मिक गंगा को प्रवाहित किया है।" "आत्मा से परमात्मा बनने की साधना ही यथार्थ में योगी/मुनि बनकर योगों से परे होने की साधना है। यही अयोग साधना है।" "योगसार में कविवर जोइन्दु ने सरल बोधगम्य भाषा में आत्मसाधना द्वारा प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर गमन का उपाय बतलाया है जो योगदशा से अयोगी बनने का ही पथ है।" "चरितकाव्य' साहित्य की एक सशक्त विधा है। जैन चरितकाव्यों में मुनि कनकामर द्वारा अपभ्रंश भाषा में रचित 'करकण्डचरिउ' एक उत्कृष्ट कोटि का काव्य है जो सांसारिक दुःखों में उलझे हुए पतित जीवन को आध्यात्मिक उन्नति/आत्मोत्थान की ओर ले जाने में प्रेरणास्रोत रहा है। यह 'चरिउकाव्य' व्यक्ति को उसके द्वारा किए गए शुभ-अशुभ कर्मों के लेखे-जोखे का अहसास दिलाता है ताकि भौतिक-अभौतिक संघर्षों-विवादों से ऊपर उठकर मनुष्य समदर्शीसमभावी हो सके अर्थात् सुख-दुःख से उसे सदा-सदा के लिए छुटकारा मिल सके।" "चित्त की निर्मलता व्यक्ति के भोजन-आहार पर निर्भर करती है। अपरिमित, असेवनीय, असात्विक, अमर्यादित, असन्तुलित आहार जीवन में आलस्य, तन्द्रा-निन्द्रा, मोह-वासना आदि कुप्रभावों कुत्सितवृत्तियों को उत्पन्न कर साधना में व्यवधान उत्पन्न करता है, अस्तु आहार का त्याग शक्त्यानुसार किया जाता है।" _ "आहार त्यागने का मूलोद्देश्य शरीर से उपेक्षा, अपनी चेतनवृत्तियों को भोजनादि के बन्धनों से मुक्त करना, क्षुधादि में साम्यरस से च्युत न होना अर्थात् सब प्रकार इच्छा-आसक्ति के त्यागने से रहा है।" (ix)

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