Book Title: Apbhramsa Bharti 1999 11 12
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती - 11-12
धीरे-धीरे इस भेदभाव में इतनी वृद्धि हुई कि सभी जातियाँ नितान्त अकेली तथा शिथिल पड़ने लगीं। इसी का परिणाम था कि मुस्लिम आक्रान्ताओं का मुकाबला सफलतापूर्वक नहीं कर सकीं।
यद्यपि प्रत्येक वर्ण मुख्यरूप से स्मृति प्रतिपादित धर्म का ही अनुष्ठान करता था, तथापि एक वर्ण दूसरे वर्ण के पेशे में भी प्रवृत्त हो रहा था। जैसे ब्राह्मण अपने पाण्डित्यपूर्ण कार्यों के अतिरिक्त अन्य वर्गों के पेशों को भी स्वीकार करने लगे थे। क्षत्रिय अपने क्षात्र कर्त्तव्य के साथसाथ शास्त्र-चिन्तन एवम् व्यापार इत्यादि में भी संलग्न थे। अत: अनेक राजपूत शासकों ने अपने बल-पराक्रम के अतिरिक्त विद्या तथा पाण्डित्य में भी पूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्त की। इतना ही नहीं अपभ्रंशकालीन अनेक राजाओं ने शस्त्र एवम् शास्त्र इन दोनों ही विद्याओं में समान प्रतिभा का प्रदर्शन करते हुए अपनी सिद्धहस्तता को स्वर्णाक्षरों में अंकित करा दिया। भोज को पण्डितों के आश्रयदाता के रूप में ही नहीं जाना जाता है, अपितु एक विद्वान एवम् पण्डित के रूप में उनकी अमिट पहचान है। प्रमाण के लिए उनका 'सरस्वती-कष्ठाभरण' अलंकारशास्त्र के लिए, 'राजमार्तण्ड' योग के लिए तथा राजमगांककरण' ज्योतिष के लिए प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं । गोविन्दचन्द्र, बल्लालसेन, लक्ष्मणसेन, विग्रहराज चतुर्थ तथा राजेन्द्र चोल इत्यादि राजाओं ने भी महाराज भोज की ही तरह अपनी प्रतिभा एवम् पाण्डित्य हेतु प्रसिद्धि प्राप्त की। तत्कालीन समाज के रूप को
और अधिक स्पष्ट करते हुए सी.वी. वैद्य ने लिखा है कि "कृषिकर्म प्रारम्भ में वैश्यों का ही कार्य था, किन्तु अनके वैश्य बौद्ध और जैन धर्म के प्रभाव के कारण इस कर्म को हिंसा-युक्त और पापमय समझकर छोड़ बैठे थे। यह कर्म भी शूद्रों को करना पड़ा। किन्तु 9वीं-10वीं शताब्दी में कृषि-कर्म का विधान ब्राह्मणों और क्षत्रियों के लिए भी होने लग गया था। किन्तु खान-पान, छुआछूत, अन्तरजातीय विवाह आदि की प्रथाओं में धीरे-धीरे कट्टरता आने लगी
और भेदभाव बढ़ता गया, बाल-विवाह विशेषकर कन्याओं का बाल्यावस्था में विवाह भी प्रारम्भ हो गया।1० निष्कर्षतः सदाचार की दृष्टि से समाज उन्नत न था। राजाओं का जीवन विलासमय था। बहपत्नी विवाह की प्रथा प्रचलित थी। अनेक अपभ्रंश ग्रन्थ सिद्ध करते हैं कि ऐश्वर्याभिभत राजाओं का अधिकांश समय अनेक रानियों, उपपत्नियों के साथ अन्तःपुर में या क्रीड़ोद्यान में व्यतीत होता था। स्त्री के विषय में समाज की धारणा अच्छी न थी, उसे भोग-विलास का साधन समझा जाता था। इसके अतिरिक्त रूढ़ियाँ और अन्धविश्वास भी पर्याप्त मात्रा में विद्यमान थे। स्वप्न-ज्ञान और शकुन-ज्ञान में भी लोग विश्वास करते थे तथा तन्त्र-मन्त्र में भी लोगों में आस्था दिखाई देती थी। अलौकिक एवम् दिव्य घटनाओं में भी लोग विश्वास करते थे।
चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी तक तत्कालीन राजनीतिक जीवन के साथ-साथ भारतीयों का सामाजिक जीवन भी जीर्ण-शीर्ण एवम् शिथिल-सा हो गया था। सामाजिक ढाँचे में शिथिलता अवश्य आ गई थी, पर बाह्य प्रभावों के प्रति निर्भीकता का भाव तथा सत्ता को सुरक्षित एवम् स्थिर बनाये रखने की क्षमता अब भी विद्यमान थी। उल्लेखनीय है कि अपभ्रंश काल में हिन्दू समाज ने आक्रान्ताओं का बराबर मुकाबला किया और विदेशी सभ्यता एवम् संस्कृति का भी