Book Title: Apbhramsa Bharti 1999 11 12
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती - 11-12
83 के वशीभूत होकर निरन्तर गतिशील रहता है, चक्कर काटता रहता है परन्तु जब योगी अपनी पारमार्थिक यात्रा में गतिशील रहता है तब यह वात्या-चक्र टूट जाता है, तब चित्त इस मण्डल चक्कर से छुटकारा पा जाता है और 'शून्यता' की चरम स्थिति आ. जाती है। इस दोहे का यही आशय जान पड़ता है। प्रो. शहीदुल्ला ने इसकी व्याख्या अन्यथा की है परन्तु श्री प्रबोधचन्द बागची की अभिमत व्याख्या यही है।
चित्त विगइ अचित्त उएसहि।
सद्गुरु वअणे फुड पडिहासहि ॥3॥ यहाँ तक कि अन्तत: चित्त भी नि:शेष हो जाता है और अचित् अस्तित्व में आ जाता है। श्री सद्गुरु के वचनोपदेश से वास्तविक स्थिति समुल्लसित हो उठती है।
जावण अप्पा जाणिज्जइ तावण सिस्स करेइ।
अन्धं अंध कहाव तिमि वेण वि कूव पडेइ॥4॥ जब तक स्वयं पारमार्थिक स्थिति को न जान ले तब तक शिष्य न बनाए । अंधा यदि अंधे का नेतृत्व करेगा तो दोनों कूप में चले जाएँगे।
जव्वें मण अत्थमण जाइ तणु तुट्टइ बन्धण।
तव्वे समरस सहजे वज्जइ उ सुद्दण बम्हण॥ जिस क्षण में मन अस्तमित हो जाता है उस क्षण में सारे बन्धन निःशेष हो जाते हैं तब 'समरस सहज' की स्थिति आ जाती है। तब साधक में शूद्र और ब्राह्मण का भेद नहीं रह जाता। उसके लिए सारा लोक एक जातिक हो जाता है। यही 'सहज' भाव में स्थिति है।
अरे पुत्तो बोज्झु रसरसण सुसष्ठिअ अवेज्ज।
वक्खाण पढन्तेहि जगहि ण जाणिउ सोज्झ॥ अरे पुत्र रस-रसायन साधन काल में स्फुटतर शुद्धि को न जानते हुए जैसे साधक नष्ट हो जाता है वैसे ही रागादि की शुद्धि को ठीक से न जानने पर नष्ट हो जाता है। राग के कारण अभीष्ट धर्मादि में जो प्रवृत्ति होती है वह अतत्वात्मक होने से अविद्या ही है। अत: यह लोक इस मनोदशा में जो व्याख्यान देता या अनुशीलन करता है - वह सब निष्फल होता है । कारण, वह संसार के स्वरूप के विषय में ठीक-ठीक कुछ जानता नहीं। पर जो जानता है उसके विषय में इस तरह से कहा गया है -
अरे पुत्तो तत्तो विचित्तरस कहण ण सक्कइ वत्थु।
कप्परहिअ सुह-ठाणु वर जगु उअज्जइ तत्थु॥ हे पुत्र जिसने उस तत्व का चिन्तन ठीक-ठीक कर लिया है वह उसके आस्वाद को वाणी का विषय नहीं बना सकता। ये संसार की वस्तुएँ जैसी नील-पीत आदि आकार की हैं क्या वह स्व-संवेद्य 'सहज' वैसा है? वह सत्य विकल्परहित है - सुख-स्थान है - श्रेष्ठ भवतत्त्व है - वहाँ भव-निर्वाण मंदरहित है। इसे स्वभाव-सिद्ध होने के कारण ध्यान आदि किसी साधन से ।