Book Title: Apbhramsa Bharti 1999 11 12
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

View full book text
Previous | Next

Page 99
________________ 86 अपभ्रंश भारती - 11-12 __ शून्यता और करुणा, प्रज्ञा और उपाय, कमल और कुलिश जब अद्वय भाव में प्रतिष्ठित हो जाते हैं - जहाँ भव और निर्वाण का भेद जाता रहता है, तब उसी का सर्वत्र विस्तार हो जाता है । यही अद्वय चित्त तरुवर है उसमें करुणा के फूल खिलते हैं और अनुत्तर फल लगता है। यही 'तथता' है । बौद्ध चिन्ताधारा जिस अमूर्त दर्शन पर हावी रही उसमें 'तथता' को महत्वपूर्ण स्थान मिला। 'तथता' अपने मूलरूप में शून्यता के समकक्ष रही है। अश्वघोष कहता है कि 'तथता' न तो भाव है, न अभाव और न ही भावाभाव का निषेध। मतलब, किसी एकान्त शब्द से इसे नहीं कहा जा सकता। इसी को सरहपा इस प्रकार कहते हैं - भवहि एक्खइ खएहिणिवज्जइ। भावरहिअ पुणु कहिउवज्जइ॥ वेइ विवज्जइ जो उअज्जइ। अच्छहि सिरिगुरु णाहिं कहिज्जइ॥ इस भावाभाव से जो विलग हो जाता है उसी में समस्त संसार विलीन हो जाता है । 'तथता' प्राप्ति का यह एक आवश्यक नियम-सा है कि चित्त इसको प्राप्त करने के लिए निश्चल-सा हो जाए। भावाभावे जो पछिण्णउ। तहि जग तिअ सहाव विलीणउ। जव्वे नहिं मण णिच्चल थाक्कइ। तव्वें भवनिर्वाणहिं मुक्कड़। और भी सरह कहता है - झाणहीण पवजे रहिअउ। गही वसत्तें भाज्जे सहि अउ॥ (जइ) मिडि विसअ रमत्ते ण मुच्च। सरह भणइ परिआण कि रुच्चअ॥ जइ पच्चक्ख कि झाणे की अइ। अहव झाण अन्धार साधिअ॥ सरह भणइ मइ कड्ढिय राव। सहज सहाउ णउ भावाभाव॥ जाल्लइ उपज्जड़ ताल्लइ वाज्जड़। ताल्लड़ परम महासह सिज्झइ॥ सरह मणइ महु (कि) क्करमि। पसु लोअण बुझाइ की करमि। रूक्ष ध्यान या जागतिक आनन्दोपादान का न्यास या त्याग करनेवाले संन्यास को परे रखकर, घर में ही स्वकीया के संग जीवन-निर्वाह करने और समस्त विषयादिक का उपभोग या सेवन पूरी तरह (मिड़ि - दृढ़तापूर्वक एवं पूर्णरूपेण) करते हुए ही साधक मुक्त होता है । इसके समक्ष उस परिज्ञान-ज्ञान के रूक्ष क्षेत्र का भला क्या बिसात? अर्थात् जब यह सहज उपलब्ध सुगम और सरल मार्ग ही पार नहीं किया जा सका, तो वह कष्टपूर्ण साधना होने से रही। इसे ध्यानधारणा में आबद्ध पशु (माया-लिप्त लोग) नहीं जान पाएँगे। वस्तुतः जिन प्रवृत्तियों और संस्कारों को लेकर तुम्हारा जन्म हुआ है उसी को लेकर मरण भी निश्चित है । नाश और निर्माण में अन्य, अन्यथा और अतिरिक्त तत्त्वों की कोई सत्ता नहीं। जो प्रत्यक्ष है - सहज है - उसमें ध्यानादि से क्या लेना-देना? यदि ध्यान का कोई समुचित विषय है ही नहीं, तो यह ध्यान अन्धकार की साधना-मात्र है। सहज में न भाव है न अभाव - पर इसे पश-प्रकृति के लोग समझ ही नहीं पाते - क्या किया जाय? (सहज सिद्ध साधना एवं सर्जना)।

Loading...

Page Navigation
1 ... 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114