Book Title: Apbhramsa Bharti 1999 11 12
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती
णिच्चोरमारि णिल्लुत्तदुक्खु
- 11-12
जहिँ चंदकंति माणिक्कदित्ति जहिँ पोमरायराएण लित्त जहिँ इंदणीलघरि कसणकंति सुपहायकालि जोयंतियाहिँ अमलियमंड मुहु दिट्ठ जेत्थु अप्पाणउ जूरिउ तियहिँ जेत्थु जहिँ छडयघित्तकुसुमावलीउ जहिँ दइ जणु जणजणियसोक्खु जहिँ गयमयसित्तड रायमग्गु मुहचुअतंबोलरसेण रत्तु कप्पूरधूलिधूसरियचमरु
घत्ता - जहिँ णरवइ णाएँ मंति उवाएँ ववहारु वि सच्चें वहइ । कुलु कुलवहुत्थें पुरिसु वि अत्थें अत्थु वि जहिँ दाणिं सहइ ॥
उल्ललइ गयणि णं धवलकित्ति । उ लाइ कुंकुमु हरिणणेत्त । व ज्जइसियदंतहिँ हसति । मणिभित्तिहि चिरु पवसियपियाहिँ । हापि विणु मंडण हुउ णिरत्थु । डिंभप्पडिबिंवहो देइ हत्थु । मोतियरइयउ रंगावलीउ । णिच्चोरमारि णिल्लुत्तदुक्खु । हयलालाजलपंकेण दुग्गु । णिवडियभूसणमणियरविचित्तु । मयणाहिपरिमलुब्भमियभमरु ।
जसहरचरिउ 1.22
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उस उज्जयिनी नगरी में चन्द्रकान्त और माणिक्य रत्नों की प्रभा आकाश में फैल रही है, जैसे मानो वह उस नगर की धवल कीर्ति हो । वहाँ की मृगनयनी स्त्रियाँ पद्मरागमणि कान्ति से लिप्त होने के कारण कुंकुम लगाना आवश्यक नहीं समझतीं। वहाँ इन्द्रनील मणिमय घरों में कृष्णवर्ण बहुएँ तभी दिखाई देती हैं जब हँसने से उनके दाँत दिखाई पड़ते । जिनके पति दीर्घकाल से प्रवास में गये हैं, वे जब प्रभातकाल में मणिमय भित्तियों में अपने अम्लान- भूषणमय मुख को देखती हैं तब वे कह उठती हैं - हाय, प्रियतम के बिना यह मण्डन निरर्थक गया । अपने में झूरती हुई स्त्री बालक का प्रतिबिम्ब देखकर उसको हाथ लगाने का प्रयत्न करती है । वहाँ पुष्पावलियों से युक्त रंगावलियाँ मोतियों से विरचित दिखाई देती थीं । वहाँ चोरों या मारीका भय नहीं था । दुःख का अभाव था और लोग परस्पर सुख बढ़ाते हुए आनन्द से रहते थे । वहाँ का राजमार्ग हाथियों के मद से सींचा हुआ था तथा घोड़ों की लार से उत्पन्न कीचड़ के कारण दुर्गम हो गया था। वह लोगों के मुख से गिरे हुए ताम्बूल - रस से लाल तथा गिरे हुए आभूषणों के मणियों से विचित्र दिखाई देता था। वहाँ की चवरियाँ कर्पूर की धूलि से धूसरित थीं तथा कस्तूरी की सुगन्ध से आकर्षित होकर उनपर भौंरे मँडरा रहे थे ।
वहाँ राजा न्याय से तथा मंत्री उपाय से, सत्यता के साथ राज-व्यवहार चलाते थे तथा वहाँ का प्रत्येक परिवार कुल-वधुओं के समूह से, प्रत्येक पुरुष धन से, और धन भी दान से अलंकृत था ।
अनु. - डॉ. हीरालाल जैन