Book Title: Apbhramsa Bharti 1999 11 12
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती - 11-12
कासु कहिज्जइ को सुणइ एत्थु कज्जसु लीण।
दुटुठसुरङ्गम धूलि जिम हिअ-जाअ हिअहिं लीण। वज्र-मार्ग बड़ा दुरूह मार्ग है, किससे कहा जाय - कौन सुपात्र है जो इसे सुने? कौन है जो इसे सुने? कौन है जो इसे ठीक से ग्रहणकर सहज पद को पा सके? इस कार्य में लीन कोई निपुण दिखाई नहीं पड़ता। ऐसे पुरुषपुङ्गव विरल ही हैं। जैसे किसी दुर्ग का भंजन करने के लिए सुरङ्ग बनाई जाए - तो उस सुरङ्ग के पास सबकोई नहीं जा सकते - सुरुङ्कि-सुरङ्ग मर्मज्ञ ही जा सकता है, वही उसकी धूल और मिट्टी का सामना कर सकता है । अपात्र स्वल्पहृदय होते हैं, सुपात्र दृढ़तर-हृदयवाले होते हैं । सुरङ्ग की धूलि स्वल्प हृदय को बर्दाश्त नहीं हो सकती पर दृढ़तर हृदयवाले उसे पचा लेते हैं । यही स्थिति इस वज्र-मार्ग की है जो संसारदुर्ग के नाश के लिए तैयार किया गया है। उस पर सर्व-सामान्य नहीं चल सकता।
जत्त वि पइसइ जलहि जलु तत्त्तइ समरस होइ।
दोष गुणाअर चित्त तहा बढ़ परिवक्खण कोइ॥ - जिस प्रकार समुद्र के जल में दूसरा जल प्रविष्ट हो तो वह समरस हो जाता है उसी प्रकार जो साधक सिद्ध हो चुके हैं, परिज्ञानी और महर्द्धिक हैं उनके लिए संसार के दोष-समूह प्रतिपक्ष नहीं बनते - वे उन्हें नहीं बाँध पाते। शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध - इनका आकर्षण दोष है। परन्तु श्री सद्गुरु के उपदेश से जिनको शुद्धि प्राप्त हो चुकी है उनके लिए ये विषय, विषय (बन्धनकारी) रह ही नहीं जाते।
मुक्कइ चित्तगयन्द करु, एत्थ विअप्प ण पुच्छ।
गअण-गिरि-णइ-जल पिअउ, तहि तड बसइ सइच्छ॥ पहले चित्त-गजेन्द्र को मुक्त किया जाए। इसमें किसी प्रकार का संशय मत उठाना। फिर वह गगन, गिरि, नदी का जलपान करे और वहाँ स्वेच्छापूर्वक वास करे। यह चित्त गजेन्द्र पंचस्कंध स्वरूप है। पंच-स्कंध हैं - रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा विज्ञान। यह चित्त गजेन्द्रसा विषय रूपाकार है पर वही जब शून्य में प्रतिष्ठित हो जाता है तब वहाँ क्लेशादि रूपावरण का कोई चिह्न लक्षित नहीं होता। चित्त करुणा की साधना से शून्य में प्रतिष्ठित हो जाता है। सरहपाद के दोहों में शून्य तरुवर में करुणारूपी फूलों का खिलना दिखाया गया है। जब साधक के मन में परमार्थवृत्ति जगती है तभी करुणा के फूल खिलते हैं -
सुण्णा तरुवर फुल्लिअउ, करुणा विहि विचित्त।
अण्णा मोक्ष परत्त फलु, एहु सोक्ख परु चित्त॥ विविध विचित्र करुणा के फूलों से 'शून्य' तरुवर प्रफुल्लित हुआ है। यह लोकोत्तर फल है। यह चित्त ही परम महासुख स्थल बन जाता है। .
अद्वय चित्त तरुवरह गउ तिहु वणे वित्थार। करुणा फुल्ली फल धरइ णाउ परत्त उआर॥