Book Title: Apbhramsa Bharti 1999 11 12
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 95
________________ 82 अपभ्रंश भारती - 11-12 हो जाता है। मल का पूर्ण शोधन तो शक्तिमार्ग में ही होता है और शक्ति-मार्ग तंत्र-मार्ग है। कहा गया है - जयति सुखराज एकः कारणरहितः सदोदितः जगताम्। यस्य च निगदन समये वचनदरिद्रो बभूव सर्वज्ञः॥ यह सुखराज (महासुह) अद्वैत है, उसका कोई कारण नहीं है, वह सदा उदित है। वह सर्वोत्कृष्ट रूप से वर्तमान है। उसके विषय में कुछ कहते हुए सर्वज्ञ की भी वाणी विरत हो जाती है। इस आशय को व्यक्त करते हुए सरहपाद के कतिपय दोहे दिए जा रहे हैं - मूल दोहा - अलिओ! धम्म महासुह पइसइ। . लवणो जिमि पाणीहि विलिज्जइ ॥2॥ इस धारा के अनुसार परमार्थत: न आत्मा जैसी कोई वस्तु है और न ही धर्म जैसी। ज्ञानगोचर (आत्मा और धर्म) सभी वैसे ही अलीक हैं जैसे स्वप्न-दृष्ट ज्ञेय पदार्थ । स्वप्न में जिस प्रकार चेतना ही आकार धारणकर प्रतीतिगोचर होती है उसी प्रकार जागृत में भी चेतना ही नाना रूपाकारों में प्रतीत होती है। परमार्थत: चित्त ही सत् है - ज्ञेय आत्मा (जीव, जन्तु, प्राणी, मनुष्य) तथा धर्म (रूप, वेदना, संज्ञा तथा संस्कार आदि) विषय मात्र अलोक हैं । महायान दर्शन में ऐसा ही माना गया है। उत्तरार्द्ध की उपमा अभिजात साहित्य से ली गई है। उपनिषद् में परमार्थ सत् ब्रह्म और व्यावहारिक ज्ञेय पदार्थों के बीच यही उपमा दी गई है। छान्दोग्य उपनिषद् में उद्दालक आरुणि श्वेतकेतु से कहता है कि नमक को पानी में डाल दो और कल फिर उसे मेरे पास लाना। श्वेतकेतु दूसरे दिन पानी लाता है पर नमक का वहाँ अता-पता नहीं रहता। आरुणि कहता है पानी को चखकर देखो और फिर बताओ। श्वेतकेतु कहता है - सारा पानी नमकीन हो गया है, परन्तु नमक अलग से कहीं दिखाई नहीं पड़ता। श्वेतकेतु कहता है कि परमार्थ सत् ऐसा ही है। यह सर्वत्र विद्यमान है पर दृष्टिगोचर नहीं होता। वृहदारण्यक में भी परमार्थ सत् के लिए यही उपमा दी गई है। व्यवहार में ज्ञानगोचर समस्त पदार्थ परमार्थ महासुख में उसी प्रकार विलीन हो जाता है जिस प्रकार नमक पानी में विलीन हो जाता है। सरह भणइ जिण गुणगण एत्तवि। पत्था एहुसो एहु . परमत्थवि॥ 2.1॥ इन पंक्तियों में रहस्यमयी गुत्थियाँ भरी पड़ी हैं। इन पंक्तियों का सामान्य अर्थ इस प्रकार है - 'सरह कहता है कि जिन (जयी) के अमित गुणगण हैं । मार्ग इस प्रकार का है और वास्तव में अन्तिम सत्य इस प्रकार है।' चित्त के दो रूप हैं - निम्न अथवा संवृत तथा उच्च अथवा पारमार्थिक (बोधि-चित्त) सांवृतिक या अपारमार्थिक बद्धदशा में यह मन पवन या मनो पवन

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