Book Title: Apbhramsa Bharti 1999 11 12
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 90
________________ अपभ्रंश भारती - 11-12 77 दूसरा प्रयोग तृतीय प्रक्रम के अंतर्गत 'शरद-वर्णन' के 178वें छन्द में मिलता है, जहाँ कवि ने स्त्रियों के अंग-अंग में लगे 'कपूर के सांद्र लेप' (मूर्त प्रस्तुत) पर अमूर्त अप्रस्तुत कंदर्प के बाणजन्य मारक 'विष', अर्थात् काम-भाव की उत्प्रेक्षा की है। छन्द देखिए - अंगि-अंगि घणु घुसिणु विलत्तउ, णं कंदप्प सरिहि विसु खित्तउ। 40 ___ संख्या की दृष्टि से भले ही मूर्त-अमूर्त विधान नगण्य हो, परन्तु प्रयोग की सहजता तथा समीचीनता की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । ऐसे अप्रस्तुतविधान में कवि को जटिल स्थिति का सामना करना पड़ता है। इसके लिए उर्वर कल्पना की आवश्यकता पड़ती है। (4) अमूर्त के लिए अमूर्त/भाव का भाव द्वारा ___आलोच्य काव्य-पुस्तक में प्रयुक्त मूर्त-अमूर्त-रूप की अपेक्षा अमूर्त-अमूर्तरूप परिमाणवत्ता तथा गुणवत्ता - दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। संदेश-रासककार ने कतिपय स्थलों पर इसके अच्छे प्रयोग किये हैं। उनमें एक प्रयोग 53वें छन्द में लक्षित है, जहाँ लीलापूर्वक चलती हुई रमणी के चमड़े के जूतों से निकलनेवाली मधुर ध्वनियों (अमूर्त प्रस्तुत) के लिए नवशरदागम पर सुनाई पड़नेवाली सारस पक्षियों की ध्वनियाँ (अमूर्त अप्रस्तुत) प्रयुक्त हुई हैं; यथा - चिक्कणरउ चंबाइहिँ लीलंतिय पावरु, णवसर आगमि णज्जइ सारसिरसिउ सरू। दूसरा प्रयोग 120वें छन्द में मदन-काम भाव (अमूर्त प्रस्तुत) के लिए समीर-हवा (अमूर्त अप्रस्तुत) का प्रयोग हुआ है; यथा - मयण-समीर । जिस तरह हवा अमूर्त रूप में संचरण करती है, उसीतरह काम-भावना रमणी के शरीर में संचरण कर रही है। तीसरा प्रयोग 171वें छन्द में शरदागम पर नव कमल-नाल खाकर कषायित शुद्ध गले से शब्द करनेवाले हंस और चक्रवाक की ध्वनियों (अमूर्त अप्रस्तुत) के लिए शरदश्री के नूपुर की क्षीण ध्वनि (अमूर्त अप्रस्तुत) का प्रयोग हुआ है; जैसे - सकसाय णवब्भिस सुद्ध गले/ धयरट्ठ रहंग रसंति जले। गइ दंति चमक्करिणं पवरं/सरयासिरि णेवर झीण सरं।13 कवि ने एक स्थल पर (53वाँ छन्द) पिकवथनी रमणी की पंचम ध्वनि (अमूर्त अप्रस्तुत) के लिए देवताओं की स्तुति में बजनेवाली तुम्बी-ध्वनि (अ.अप्र.) का प्रयोग किया है। उद्धरण देखिए - पंचमु कहब झणंतिय झीणउ महुरयरु, णायं तुंबरि सज्जिर, सुरपिक्खणइ सरू । इसीतरह, 191वें छन्द में अमूर्त प्रस्तुत 'हेमंत' के लिए अमूर्त अप्रस्तुत 'घाम' (धूप) का प्रयोग किया है; यथा - संसोसिउ तणु हिमिण हाम।45

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