Book Title: Apbhramsa Bharti 1999 11 12
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 89
________________ 76 अपभ्रंश भारती - 11-12 (ग) प्रभाव-साम्यमूलक 'संदेश-रासक' में प्रभाव-साम्याश्रित अमूर्त-मूर्त विधान का प्रयोग नगण्य है। जो दो-चार प्रयोग मिलते हैं, उनमें द्वितीय प्रक्रम का 108वाँ छन्द इसका सर्वोत्तम उदाहरण कहा जा सकता है; यथा - सुन्नरह जिम गह हियउ पिय उक्किख करेई, विरह हुयासि दहेवि करि आसाजल सिंचेई॥37 अर्थात् नायिका कहती है कि सुनार की भाँति मेरा हृदय पहले तो परदेशी प्रिय से मिलने की उत्कण्ठा उत्पन्न करता है; फिर, विरहानल में जलाकर आशारूपी जल से सींचता है। इस उदाहरण में 'हृदय', 'विरह' और 'आशा' - तीनों अमूर्त प्रस्तुत हैं, जिनके लिए क्रमश: 'सुनार', 'अनल' तथा 'जल' मूर्त अप्रस्तुत प्रयुक्त हुए हैं । व्यापार-साम्य के माध्यम से प्रभाव उत्पन्न कर बिम्बोद्भावन करना कवि का अभीष्ट रहा है। प्रभाव-साम्याश्रित अमूर्त-मूर्त विधान का दूसरा बढ़िया उदाहरण प्रथम प्रक्रम के अंतर्गत छन्द संख्या छह से सोलह के बीच कुल ग्यारह छन्दों में देखने को मिलता है। यहाँ कवि ने 'सुकविता' तथा 'कुकविता' - इन दो अमूर्त प्रस्तुतों के लिए क्रमश: चन्द्रमा और दीपक, कोयल और कौवा, वीणा और करट (ढोल), मदमत्त गज और साधारण गज, पारिजात और साधारण वृक्ष, गंगा और साधारण नदी, नलिनी और तूंबी (लौकी), विशिष्ट शास्त्रीय नर्तकी और सामान्य नर्तकी, खीर और रब्बड़ी (कन-भूसी वाली)38 कुल नौ जोड़े मूर्त अप्रस्तुतों का विधान किया है। जिसप्रकार सुकविता पाठकों या श्रोताओं पर अच्छा प्रभाव डालती है, उसी प्रकार चन्द्रमा कोयल, वीणा इत्यादि का भी प्रभाव लोगों पर पड़ता है। दूसरी तरफ कुकविता जिसतरह लोगे को या तो प्रभावित नहीं कर पाती या बुरा प्रभाव छोड़ती है, उसीतरह दीपक, कौवा, करट सामान्य गाँव की नर्तकी इत्यादि। या तो प्रभाव नहीं छोड़ पाते या गलत प्रभाव छोड़ते हैं। यह प्रस्तुतों और अप्रस्तुतों में साम्य का आधार प्रभाव है। इस वर्ग के अन्तर्गत 'संदेश-रासक' में ऐसे उदाहरण दृष्टिगत नहीं होते। (3) मूर्त के लिए अमूर्त/वस्तु का भाव द्वारा संदेश-रासककार ने इस कोटि के अन्तर्गत मात्र दो प्रयोग किये हैं। पहला प्रयोग द्वितीय प्रक्रम में नायिका के रूप-वर्णन क्रम में देखने को मिलता है, जहाँ उसकी 'कटि' (मूर्त प्रक्रम) की तुलना 'मर्त्य सुख' (अ. अप्र.) से की गयी है। द्रष्टव्य है - मज्झं मच्चसहं भिव तुच्छं सरलग्गई हरणं।" मर्त्य (मरणशील, अर्थात् नश्वर) सुख से रमणी की कटि की तुलना के पीछे कवि का प्रयोजन कटि की सूक्ष्मता दिखाना है। इसी सूक्ष्मता के कारण वह तेजी से नहीं चल पाती। उसकी कटि के ऊपर यौवन का दुर्वह भार जो है।

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