Book Title: Apbhramsa Bharti 1999 11 12
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती - 11-12
कहलाता है। चरित शब्द का सामान्य अर्थ और अभिप्राय है - रहन-सहन, आचरण, किसी जीवन की विशेष घटनाओं और कार्यों आदि का वर्णन करना। चरिउ-काव्य में प्रबंध और पुराण काव्य- रूपों का संकर रूप सम्मिलित है। चरित काव्य-रूप के निर्धारण में अपभ्रंश वाङ्मय के धार्मिक चरिउ काव्यों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
भाव-पक्ष और कला-पक्ष मिलकर किसी भी काव्य के रूप को स्वरूप प्रदान करते हैं। काव्य के भावपक्ष में कथा और कथानक, प्रकृति-चित्रण का वैविध्य तथा रस-निरूपण की प्रधानता रहती है। चरिउ-काव्य में भावपक्ष की दृष्टि से एक सुव्यवस्थित कथा और कथानक होता है जिसमें किसी महापुरुष अथवा तीर्थंकर के जीवन-चरित्र को व्यक्त किया जाता है। कथावर्णन में नायक-नायिका से सम्बन्धित नाना प्रसंगों में प्रकृति के विविध रूप और रंग चित्रित हुए हैं, जिनमें प्रकृति का आलम्बनकारी चित्रण, विशेषकर परिगणन की शैली के माध्यम से प्रकृति का प्रयोग हुआ है। नायक और नायिका की विरह-व्यथा को उद्दीप्त करने के लिए प्रकृति का उद्दीपनकारी वर्णन भी चरिउ-काव्यों में यत्र-तत्र बन पड़ा है। भाव और भावाभिव्यक्ति को प्रभावक बनाने तथा अभिव्यक्ति में सरसता का संचार करने के लिए प्रकृति का आलंकारिक प्रकृति चित्रण भी चरिउ-काव्यों की अपनी विशेषता है।
चरित-काव्यों की रचना मूलतः पौराणिक रही है। ये काव्य रोमांटिक शैली में रचे गये हैं। पुराण नामक संज्ञा में कुछेक चरित-काव्य उपलब्ध हैं। रूप और स्वरूप की दृष्टि से इन पुराण
और चरिउ काव्यों में कोई भेद नहीं है। पुराण और पौराणिक काव्यों में कथा का विस्तार व्यापक होता है, इसीलिये इन काव्यों में संधि-संख्या पचास से लेकर सवा सौ तक हो सकती है किन्तु चरित तथा चरिउ काव्यों में विषय-विस्तार अपेक्षाकृत मर्यादित होता है, इसीलिये इन काव्यों में संधि-संख्या प्रायः अधिक नहीं होती।
चरित-काव्यों की विशेषताओं का मुख्य आधार उनके कथावृत्त पर निर्भर करता है । चरिउ काव्यों में नायक के चरित्र का वर्णन ऐतिहासिक और पौराणिक ढंग से किया जाता है। ऐसे कथावृत्तों के प्रारम्भ उसके पूर्वज माता-पिता तथा वंश आदि के उल्लेख के साथ होता है। जबकि पौराणिक पद्धति में उसके पूर्वज माता-पिता तथा वंश आदि के पूर्व भव-भवान्तरों के वृत्तान्त पर निर्भर करता है। ऐसे चरिउ काव्यों के नायकों के जन्म से लेकर मृत्यु-पर्यन्त अनेक भवों की कथा का उल्लेख किया जाता है। __ नायक और नायिका के प्रेम का प्रारम्भ चित्र और स्वप्न-दर्शन तथा उनके गुणों की प्रशंसा और अनुशंसा सुनकर होता है। नायक-नायिका के वैवाहिक संस्कार में दीक्षित होने में अनेक विघ्न-बाधाओं का उत्पन्न होना इन काव्यों का प्रमुख लक्षण है। उल्लेखनीय बात यह है कि नायक और नायिका के संकट और संघर्षकाल में विद्याधर, यक्ष, गंधर्व तथा अन्य अनेक देवशक्तियाँ सहायता करती हैं। इन जीवंत किन्तु प्रतिकूल घात-प्रतिघातों से जूझने के उपरान्त नायक और नायिका का मधुर मिलन करा दिया जाता है। ऐसे प्रसंगों में नायकगत प्रेम, वैराग्य,