Book Title: Apbhramsa Bharti 1999 11 12
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 62
________________ अपभ्रंश भारती - 11-12 समभावइँ जीवइँ जो णिएइ, परिभावइ संजुम जो हिएइँ । ( 9.23) कणयामरसिवमाणिणि वरइ सो हवइ णिरुत्तउ ताहे वरु ॥ ( 9.24 ) राग की प्रचुरता को समाप्त करने के लिए अर्थात् कर्म-निर्जरा हेतु पाँच (अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु) का स्मरण - चिन्तवन वस्तुतः पूजा कहलाती है। यह दो प्रकार से होती है - एक भावपूजा जिसमें मन से अर्हन्तादि के गुणों का चिन्तवन होता है तथा दूसरी द्रव्यपूजा, जिसमें जल, चन्दनादि अष्टद्रव्यों से जो विभिन्न संकल्पों के प्रतीक हैं, जिनेन्द्र प्रतिमादि के समक्ष जिनेन्द्र के गुणों का स्तवन- नमन किया जाता है । वास्तव में भक्तिपूर्वक की गई जिनेन्द्रपूजा से संसारी प्राणी समस्त दुःखों से मुक्त हो अपने कर्मों की निर्जरा कर मोक्षगामी होता है। 49 प्रस्तुत चरिउकाव्य में कवि ने इस काव्य के प्रमुख राजा करकंड के पूर्वभव के जीव धनदत्त गोप के माध्यम से भक्तिपूर्वक जिनेन्द्र- पूजा कराकर यह दर्शाया है कि संसारी प्राणी यदि अपने आराध्यदेव (जिनेन्द्र प्रभु) का स्तवन - स्मरण करता है तो वह इस भव या अगले भव में निश्चय ही सुख-वैभव-समृद्धि का भोग-उपभोग करता है । यथा - कद्दमइँ विलित्तहिं पयकरहिं जं अंचिउ जिणवरु जयतिलउ । तें कंडू तुह पए करे हुयउ इउ अक्खि मइँ तुह सुहणिलउ ॥ ( 10.5) ऐसी कोई भी क्रियाएँ जो तीनों गुप्तियों - मनसा वाचा कर्मणा से भोजन लेने में निमित्त का कार्य करती हैं, उन समस्त क्रियाओं को त्यागना-छोड़ना उपवास कहलाता है । उपवास का अर्थ है - आहार का त्याग । चित्त की निर्मलता व्यक्ति के भोजन - आहार पर निर्भर करती है । अपरिमित, असेवनीय, असात्विक, अमर्यादित, असन्तुलित आहार जीवन में आलस्य, तन्द्रानिन्द्रा, मोह-वासना आदि कुप्रभावों कुत्सितवृत्तियों को उत्पन्न कर साधना में व्यवधान उत्पन्न करता है, अस्तु आहार का त्याग शक्त्यानुसार सावधि अथवा जीवनपर्यन्त किया जाता है। से आहार त्यागने का मूलोद्देश्य शरीर से उपेक्षा, अपनी चेतनवृत्तियों को भोजनादि के बन्धनों मुक्त करना, क्षुधादि में साम्यरस से च्युत न होना अर्थात् सब प्रकार इच्छा-आसक्ति के त्यागने से रहा है। शरीर एवं प्राणियों के प्रति ममत्व भावों का विसर्जन अर्थात् समस्त तृष्णाओं का समापन तथा अन्तरंग में विषय/विकारों/कर्मकषायों से विमुक्ति / निर्जरा एवं आत्मबल की वृद्धि हेतु आहार का त्याग परमापेक्षित है। निश्चय ही उपवास से प्राणी - मन- इन्द्रिय संयम की सिद्धि होती है जिससे संसारी प्राणी समस्त पाप-क्रियाओं से विमुक्त होकर सम्पूर्ण अहिंसादि व्रत का पालन करता हुआ महाव्रती बनता है । विवेच्य काव्य में चरिउकार ने मूलनायक राजा करकंड की पत्नी पद्मावती को उपवास व्रत, उसके उद्यापन का विधि-विधान तथा उसके फल- परिणामादि को दृष्टान्त के माध्यम से बताकर उपवास की महत्ता का गुणगान किया है । यथा - पडिवइँ आइ करेवि तहिं उववासइँ पुत्ति सया करहि । हिय इच्छिय सो सुहु अणुहवइ सुरसेज्जहिं लीलए रइ करइ ॥ ( 10.15)

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