Book Title: Apbhramsa Bharti 1999 11 12
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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कर्ममुक्ति अर्थात् मोक्ष प्राप्त्यर्थ जैनदर्शन का लक्ष्य रहा है- वीतराग विज्ञानता की प्राप्ति । यह वीतरागता सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूपी रत्नत्रय की समन्वित साधना से उपलब्ध होती है। जैनदर्शन में रत्नत्रय के विषय में विस्तार से तर्कसंगत चर्चा हुई है। इसके अनुसार जीव-अजीव आदि नवविध तत्त्वों का यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान, तत्त्वों के यथार्थस्वरूप पर किया गया श्रद्धान/ दृढ़ प्रतीति अर्थात् स्वात्मप्रत्यक्षपूर्वक स्व- पर भेद या कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का विवेक सम्यग्दर्शन तथा आचरण द्वारा अन्त:करण की शुद्धता अर्थात् कर्मबन्ध के वास्तविक कारणों को अवगत कर संवर (नवीन कर्मों को रोकना) तथा निर्जरा ( पूर्वसञ्चित कर्मों को हप द्वारा क्षय करना) में लीन रहना सम्यक्चारित्र कहलाता है। जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन की महत्ता पर बल दिया गया है । उसे मोक्ष का प्रथम सोपान माना गया है। बिना सम्यग्दर्शन के सूक्ष्म से सूक्ष्म ज्ञान-अनुभूति तथा जीवन पद्धति मिथ्यादर्शी होती है । वास्तव में सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान, चारित्र, व्रत तथा तपादि सब निस्सार हैं। यह निश्चित है कि सम्यग्दर्शन से जीव सर्वप्रकार की मूढ़ताओं से ऊपर उठता चला जाता है अर्थात् उसे भौतिक सुख की अपेक्षा शाश्वत - आध्यात्मिक सुख का अनुभव होने लगता
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अपभ्रंश भारती
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प्रस्तुत काव्य में सम्यग्दर्शन का व्यवहार उस समय हुआ है जब चम्पा के उपवन में पधारे मुनि शीलगुप्त ने इस काव्य के मूलनायक राजा करकण्डु को उपदेश दिया । यथा सद्दंसणु जिणवरणिच्छएण, सद्दंसणु फिट्टइ मिच्छएण | सद्दंसणु तच्चहँ सद्दहेण, संकाइय दोसहँ
णिग्गहेण ॥ (9.21)
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मोक्षमार्ग में व्रतों का अपना महत्त्व है। यावज्जीवन हिंसादि पापों की एकदेश या सर्वदेश निवृत्ति का होना व्रत कहलाता है अर्थात् सर्वनिवृत्ति के परिणाम को व्रत कहते हैं। जैनागम में. इसके दो भेद किए गए हैं अणुव्रत / देशव्रत और महाव्रत । गृहस्थों / श्रावकों के लिए पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत और साधुओं के लिए महाव्रतों के परिपालन का विधिविधान है । अणुव्रतों एवं महाव्रतों के फलों के बारे में जैनागम में उल्लेख है कि अणुव्रत - युक्त सम्यग्दर्शन स्वर्ग का और महाव्रत- युक्त सम्यग्दर्शन मोक्ष का कारण है।
विवेच्य काव्य में अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत तथा महाव्रतों के स्वरूप की चर्चा बड़े मार्मिक ढंग से हुई है। मुनि शीलगुप्त राजा करकंड को धर्म और दर्शन की शिक्षा दे रहे हैं, वे अपने उपदेश में तत्त्वज्ञान के अन्तर्गत व्रतों के स्वरूप और माहात्म्य का प्रतिपादन करते
। यथा -
अणुइँ सुथूलइँ अक्खियाइँ, अइसहुमइँ ताइँ महव्वयाइँ । तसजीवहँ रक्खा जो करेइ, सो माणउ पढमउ वउ धरेइ ॥ rs बोल्ल थूलि अलियवाणि, सो वीयड अणुवड धरइ णाणि । rs चोरिएँ गिves दव्वु जो वि, सो पालइ अणुवउ तइयओ वि । जोणार पराई गणइ माय, सो अणुवउ तुरियउ धरइ राय । परिमाणु परिग्गहे जो करेइ, सो णखरइ पंचमु वउ धरे । ( 9.22)