Book Title: Apbhramsa Bharti 1999 11 12
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती 11-12
निर्जरा भावना
णिज्जरइ कम्मु संसुद्धमणु मणवयकाएँ जो वि णरु ।
देवाण मज्झे भुंजेवि सुहु सो णिच्छइँ सिवपएलहइ घरु ॥ (9.14)
• जो नर शुद्ध मन होकर मन-वचन-काय से कर्म की निर्जरा करता है वह देवों के बीच सुख भोगकर निश्चय ही शिवपद में घर (स्थान) पाता है ।
लोक भावना
पालिवि पँच महव्वयइँ लोयणुवेक्खहे जो मणु जुंजइ । सो रु धणु सलक्खणउ अमरहँ सुहइँ अणेयइँ भुंजइ ॥
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(9.15)
जो कोई पाँच महाव्रतों का पालनकर इस लोकानुप्रेक्षा में अपने मन को लगाता है वह नर धन्य है, सुलक्षण है और वह देवों के अनेक सुख भोगता है।
बोध दुर्लभ
अणुवेक्खाबोहिएँ अणुसरिवि पुणि हियएँ चडाविय जेण लहु । सिवकामिणिवयणहो मंडणउ कियउ खणर्द्धं तेण बहु ॥
दामोयर जिणवर धम्मँ फुडु पडिकेसव संकर सग्गिसुर । कल्लाणइँ सयलइँ ते हवहिं धम्मेण वि हलहर चक्कहर ॥
( 9.16 )
इस प्रकार बोधिपूर्वक अनुस्मरण करके जिसमें इस अनुप्रेक्षा को शीघ्र ही अपने हृदय पर चढ़ा लिया उसने क्षणार्द्ध में अपने को बहुत कुछ शिवरूपी कामिनी के मुख का मण्डन बना लिया ( वह मोक्षमार्ग पर लग गया ) ।
धर्म भावना
(9.17)
धर्म से ही स्पष्टतः दामोदर (नारायण), जिनवर, प्रतिनारायण, शंकर और स्वर्ग में देव होते हैं । उसी से सकल कल्याण प्राप्त होते हैं। धर्म से ही बलदेव और चक्रवर्ती होते हैं ।
श्रावक के षडावश्यक कर्मों में दान भी एक है जिसे श्रावक नित्य पालता है। यह दान दो प्रकार से विभाजित है - एक अलौकिक व दूसरा लौकिक । अलौकिक दान साधुओं को तथा लौकिक दान साधारण प्राणियों को दिया जाता है। औषधि, ज्ञान और अभयदान की भाँति आहारदान भी लौकिक दान के अन्तर्गत आता है।
विवेच्य काव्य में साधुओं को दिए जाने वाले आहारदान की विधि आदि का वर्णन स्पष्टतः परिलक्षित है । कवि द्वारा आहारदान की विधि को इस काव्य के मूलनायक राजा करकंडु को कामविजयी शीलगुप्त मुनि के प्रवचन के माध्यम से समझाया गया है । यथा -
छहिँ कमहिँ जो णरु संचरइ छब्बासयछायउ जासु तणु ।
असुहत्तर लेसउ परिहरिवि जिणिबिम्बहो जुंजड़ णियममणु ॥ ( 9.20 )