Book Title: Apbhramsa Bharti 1999 11 12
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 67
________________ अपभ्रंश भारती -11-12 उसका सौन्दर्य हरण कर लिया था। उस हार ने भी डोल-डोलकर स्तनों के मुखों को काजल के समान काला कर डाला था । खल का भी जब लड़-लड़कर सिर झुका दिया जाता है तभी वह गुणीजनों के प्रति मत्सरहीन होता है। रानी के उदर की त्रिबली मानो बालक के भय से लज्जायुक्त होकर नष्ट हो गई। पेट के बड़े भार से उसकी गति मन्द पड़ गई तथा आलस, जम्हाई और तंद्रा की वृद्धि हो गई। इस प्रकार बालक गर्भ के सारभूत लक्षणों को प्रकट करता हुआ माता के विशाल अंग में रहने लगा - 54 वियंभिय अंगे अउव्विय छाय, कवोल समुज्जल पंडुर जाय । पओहरतेयविडंबियसारु, उरम्मि ण छज्जइ मोत्तियहारु । घुलंतइँ तेण थणाहँ मुहाइँ, सकज्जलवण्णइँ ताइँ कयाइँ । खलो वि रणेहिं विणामियसीसु, णिमच्छरु होइ गुणीण गुणीसु । वलित्तउ लज्जए जुत्तु खणेण, पणट्ठउ बालहो णाइँ भएन । सुपोट्टभरेण हुआ गइ मंद, समालसजिंभ पवड्ढिय तंद। (1.9.2) श्मशान का चित्र तो जैसे वीभत्स रस की अवतारणा में अपना सानी नहीं रखता - वहाँ की भूमि विदीर्ण हुए जीवों की स्थिति और रुधिर से भर रही थी । मांस के लोभी गीध व अन्य प्राणी वहाँ नाच रहे थे। लपलपाती जीभोंवाले भालू मृत शरीरों का पेट फाड़ रहे थे। मांसाहारी राक्षस फे-फे करते हुए वहाँ फिर रहे थे । उड़ते और रेंगते लाखों पक्षियों की वहाँ भीड़ लगी थी। आग की ज्वाला में जलते हुए जीवों से सारी भूमि भरी थी । मृत शरीरों के केश वायु के झोकों से लहरा रहे थे और स्थान-स्थान पर बँधी झंडियाँ फहरा रही थीं। जीवों के मृत शरीरों की सड़ी गंध से वहाँ मनुष्यों को ज्वर आ जाता था । भग्न हुए खप्परों के वहाँ कहीं-कहीं ढेर लगे थे - दारियाहँ जीवयाहँ लोहिएण थिप्पिरं, अमिसाण गिद्धएहिं भूयएहिं णच्चिरं । लोलजीह भल्लुएहिं फाडियं मयोवरं, मंसरत्तफेक्करंतरक्खसाण गोयरं । उड्डिराण रिंगिराण पक्खिलक्खसंकुलं, चिच्चिजालजीववग्गडज्झमाणआउलं । वायएण सीसभूयकेसभारलोलिरं, थामि थामि बद्धियाहिं चिंधियाहिं घोलिरं । देहिदेहगंधपण माणुसेहिं जूरियं, कहिं मि थामे भग्गएहिं खप्परेहिं पूरियं । ( 1.17 ) राज- प्रासाद के चित्रण में भी कवि की कुशलता और उपमानों की भव्यता दर्शनीय है वह राजनिकेत हिमवंत के शिखर के समान अति मनोहर था । वह मुक्ताफलों की माला के तोरणों से मानो अपने सघन श्वेत दाँतों से हँस रहा था । किंकिणियों की ध्वनिसहित अपनी ध्वजा और पताकाओं की मालासहित ऐसा प्रतीत होता था मानो कोई प्रणयिनी ताल दे-देकर नाच रही हो । सुवर्ण और मणिरत्नों से जड़ा हुआ वह ऐसा दीख पड़ रहा था मानो स्वर्ग से देवों का विमान आ पड़ा हो -

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